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ग्रंथ का नाम : ध्यानोपदेशकोष (योगसार संग्रह) ग्रंथकर्ता : आचार्यश्री गुरुदास संपादन एवं अनुवाद : ब्र० विनोद जैन, ब्र० अनिल जैन प्रकाशक : पोतदार धार्मिक एवं पारमार्थिक न्यास, टीकमगढ़ (म०प्र०) प्रकाशन वर्ष : प्रथम संस्करण, 1999 ई० मूल्य : पैंतीस रुपये, (डिमाई साईज़, कागज़-गत्ते की जिल्द, 108 पृष्ठ) ___ आचार्यश्री गुरुदास जी की इस कृति का मूलनाम 'ध्यानोपदेशकोष' ग्रंथ के प्रशस्तिपद्यों में आया है जबकि योगसारसंग्रह' बाद में नामान्तर प्रसिद्ध हुआ प्रतीत होता है। इस ग्रंथ पर डॉ० ए०एन० उपाध्ये जैसे गुरुगंभीर विद्वान् ने संपादन-कार्य किया है तथा इसका प्रकाशन 'भारतीय ज्ञानपीठ' जैसी प्रतिष्ठित प्रकाशक-संस्था के द्वारा हो चुका है। इसका उपर्युक्त संस्था (पोतदार ट्रस्ट) द्वारा पुनः प्रकाशन कराया गया है। ___ इसके पुन:संपादन में मूल पद्यों के पाठ जिस तरह से असावधानीपूर्वक प्रकाशित हुये हैं, उन्हें देखकर यह भाव जगता है कि क्या ही अच्छा होता कि उक्त आधुनिक संपादकद्वय (ब्र० विनोद जैन एवं ब्र० अनिल जैन) डॉ० उपाध्ये जी के मूलपाठों को ही यथावत् रखकर प्रकाशित करा देते, तो आचार्य-विरचित मूलग्रंथ का स्वरूप तो प्रामाणिक बना रहता।
उक्त सम्पादकद्वय से बहुत श्रमपूर्वक ज्ञानार्णव, तत्त्वानुशासन एवं आचार्य कुन्दकुन्दसाहित्य से कई समानान्तर उद्धरण खोजकर प्रस्तुत तो किये हैं; परन्तु उनका सम्पादन, अनुवाद एवं प्रकाशन –तीनों ही किसी विशेषज्ञ विद्वान् के द्वारा निरीक्षण एवं व्यापक संशोधन की अपेक्षा रखते हैं। मैं प्राय: लिखता रहता हूँ कि जैनसमाज में पदों एवं आर्थिक संसाधनों से लोग प्राय: संपादक पदवी धारण कर लेते हैं, इस कला के विशेषज्ञ वे प्राय: नहीं होते हैं। संपादनकला सूक्ष्मप्रज्ञा की महती साधना से प्राप्त होती है; इसे बच्चों का खेल समझकर हर किसी को नहीं करना चाहिये। इससे हमारे आचार्यों के ग्रंथों का स्वरूप तो बिगड़ता ही है, साथ ही किसी विद्वान् के हाथ में जाने पर आचार्यों के ग्रंथ संपादकीय त्रुटियों के कारण अर्थभ्रम एवं उपहास के पात्र बन जाते हैं। पेपर, प्रिंटिंग एवं बाइंडिंग का पूरा खर्चा तो समाज का हो ही जाता है, फिर प्रकाशित कृति का स्वरूप यदि स्तरीय नहीं बन सके, तो इतने खर्च का औचित्य क्या है? —यह विचारणीय है। ____ इस कृति में 'आदरार्थे बहुवचनम्' जैसे सामान्य शिष्टाचार के प्रयोग तक प्राय: नहीं हैं। आचार्यों को भी एकवचन में संबोधित एवं सूचित किया गया है। है' और हैं' के प्रयोगों में घोर लापरवाही बरती गयी है। बहुवचनान्त प्रयोगों में भी प्राय: है' का प्रयोग किया गया है। कई स्थलों पर तो मूलकारिका के पूरे पाठ भी अन्वयार्थ' में नहीं आ पाये
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प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '99