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________________ पद्मासनस्थ रूप में देख जैन सामाजिकों के मन में दर्शनार्थ जिज्ञासा जगी। प्रात: वन्द्य मुनिश्री विद्यानन्द जी मुनिराज ने भी इस ओर दृष्टिपात किया। सन् 1970 में अन्वेषी मनिराजश्री विद्यानन्द जी के चरण उस दिशा में बढ़ चले। वे हरिद्वार में गंगा नदी के किनारे 'हर की पौड़ी' पर प्रसिद्ध 'कल्याण' आध्यात्मिक मासिक पत्र के विद्वान् मनीषी सम्पादक पं० श्री हनुमान प्रसाद जी पोद्दार एवं ऋषिकेश में ऋषि-मुनियों से आध्यात्मिक चर्चा करते हुये, मध्यवर्ती ग्रामांचलों में धर्म-गंगा प्रवाहित करते हुये श्रीनगर-गढ़वाल पहुंचे। वहाँ वे अलकनन्दा नदी के तट पर सुरम्य पर्वतों के मध्य अवस्थित आद्य तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव की समवशरणस्थली श्री दिगम्बर जैन मन्दिर, श्रीनगर-गढ़वाल में ठहरे। श्रीनगर-गढ़वाल से मुनिराजश्री आगे बढ़े। भक्तगण उनके साथ हिमानी हवाओं में भी अध्यात्म का आनन्द लेने लगे। मार्ग में सभी ग्रामवासियों, दर्शकों को सन्त-समागम का सद्लाभ देते हुये हिमाच्छादित पर्वत श्रृंखलाओं के मध्यवर्ती 'बद्रीनाथ धाम' जा पहुँचे। मार्ग में मुनिश्री ने अपनी अद्भुत विद्वत्ता एवं उदात्त विचारों से सभी को प्रभावित किया। वैष्णव भक्तगण भी उनके साथ चलते रहे। उत्तराखण्ड की इस पावन हिमशीतल धराधाम पर वर्षों से किसी दिगम्बर मुनि का मंगल-विहार नहीं हुआ था। मुनिश्री विद्यानन्द जी ऐसे प्रथम मनिराज रहे; जिनके वहाँ चरण धरते ही सामाजिकों के हृदय में नवीन स्फूर्ति, अध्यात्म-प्रेरणा, श्रद्धा व आस्था के सद्भाव जगने लगे। ___ मुनिराज श्री विद्यानन्द जी को अपनी इस दीर्घ मंगल-पदयात्रा की सफलता की अनुभूति तब हुई, जब उन्हें दूसरे दिन प्रात: ब्रह्ममुहूर्त में भगवान् बद्रीनाथ के अभिषेक-समारोह में दिगम्बर पद्मासनावस्था में भगवान् आदिनाथ की प्रतिमा के रूप में दर्शन हुये। दर्शन करते ही उन्हें यह स्पष्ट प्रतिभासित हो गया कि यह प्रतिमा प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ की ही है, और यही क्षेत्र अष्टापद कैलाशपर्वत है; जहाँ उन्हें निर्वाण प्राप्त हुआ। इन मुनिराज श्री विद्यानन्द जी ने एक बार पुन: अनेक वर्षों बाद जैनधर्म की ध्वजा को दक्षिण से उत्तर भारत में हिमालय पर्वत तक ले जाने और फहराने का वन्दनीय कार्य सम्पन्न किया। वे स्वयं तो वन्दनीय हैं ही ___ “धन्या: सुविज्ञा: आत्मसिद्धा: मुनीश्वरा:। नास्ति येषां यश:काये जरा-मरणजं भयं ।।" “सद्दर्शन-बोध-चरण-पथ पर, अविरल जो बढ़ते हैं मुनिगण। उन देव-परम-आगम-गुरु को शत-शत वन्दन! शत शत वन्दन ।।” प्रकृति के सुषमामय शान्त-एकान्त वातावरण में आत्मा-साधना का अपना अप्रतिम आनन्द होता है। इसीलिये ऋषि-मुनि आत्म-साधना के लिये एकान्त शान्त वनस्थली का चयन करते हैं। उन तपस्वी मुनियों के सान्निध्य में परस्पर विरोधी स्वभावी प्राणी भी प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '99 0075
SR No.521355
Book TitlePrakrit Vidya 1999 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year1999
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size10 MB
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