SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 75
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परमधर्म का आचरण किया । उनकी आध्यात्मिक जीवनशैली का विवरण 'श्रीमद्भागवत' में प्रभावी रूप में प्राप्त होता है—“भगवानृषभसंज्ञ आत्मतंत्र: स्वयं नित्यनिर्वृत्तानर्थपरम्परः केवलानन्दानुभव ईश्वर एव विपरीतवत् कर्मण्यारभमाणः कालेनानुगतं धर्ममाचरणेनोपशिक्षयन्नतद्विदां सम उपशान्तो मैत्र: कारुणिको धर्मार्थयशः प्रजानन्दामृतावरोधेन गृहेषु लोकं नियमयत् ( न्ययमयत्) । ” – ( श्रीमद्भागवत, पंचम स्कंध, 4 / 14 ) अर्थ:- ऋषभदेव नामक भगवान् आत्मामय थे एवं अनर्थ की परम्पराओं से स्वयं नित्य-निर्वृत्त थे। वे केवलानन्द ( क्षायिक सुख) का अनुभव करनेवाले ईश्वर थे। वे ‘अतद्विद्’ लोगों अर्थात् ऋषभदेव के धर्म से अनजान लोगों के लिए विपरीवत् (परस्पर विरुद्ध धर्मों का एक में ही प्ररूपण) कथन करके ( अर्थात् अनेकान्तवाद का प्ररूपण करके) समय (शास्त्र-परंपरा या पूर्व तीर्थंकर - परंपरा ) से अनुगत धर्म का सम्यक्चारित्रपूर्वक उपशिक्षण करते थे। ऋषभदेव समताभावी, उपशांतचित्त, प्राणीमात्र से मैत्रीभाव रखनेवाले (मॅत्ती मे सव्वभूदेसु) एवं दयावान् थे। उन्होंने धर्म, अर्थ, यश एवं प्रजाओं के आनन्दामृतस्वरूप मोक्ष के निरूपण द्वारा गृहस्थाश्रम में स्थित लोगों को सन्मार्ग में नियमित किया था । भगवान् ऋषभदेव ने उत्तमक्षमादि दशलक्षणमयी धर्म का उपदेश दिया था - ऐसा उल्लेख 'ब्रह्मांडपुराण' में स्पष्टरूप से मिलता है — “इह वि इक्ष्वाकुकुलोद्भवेन नाभिसुतेन मरुदेव्या नन्दनेन महादेवेन ऋषभेण धर्मः दशप्रकारो स्वयमेवाचीर्णः केवलज्ञानलाभाच्च प्रवर्तितः । ” अर्थ:- इस लोक में इक्ष्वाकुवंश में उत्पन्न, नाभिराय के पुत्र एवं मरुदेवी के नन्दन देवाधिदेव भगवान् ऋषभदेव ने दशलक्षणमयी धर्म का स्वयं आचरण किया और केवलज्ञान की प्राप्ति होने पर स्वयं लोकहित के लिए उसका प्रवर्तन ( उपदेश ) भी किया था । इस दशलक्षणमयी धर्म का कथन जैनसूत्र-ग्रंथ में निम्नानुसार मिलता है — “उत्तमक्षमामार्दवार्जव - शौच-सत्य- संयम - तपस्त्यागाकिंचन्य - ब्रह्मचर्याणि धर्मः । " – (तत्त्वार्थसूत्र) अर्थ:-धर्म का स्वरूप उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम शौच, उत्तम सत्य, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम आकिंचन्य एवं उत्तम ब्रह्मचर्य इन दशलक्षणमय है। - इसप्रकार हम पाते हैं कि धर्म का स्वरूप जैसा जैन - मान्यता में है, वैसा ही अन्य मतावलम्बियों ने भी तीर्थंकर ऋषभदेव के द्वारा प्ररूपित बताया है। यही नहीं, जैन मान्यता के विशिष्ट पारिभाषिक शब्दों का विशेषणों के रूप में प्रयोग करके उन्होंने ऋषभदेव जैनों के आदि तीर्थंकर थे — यह सिद्ध किया है । इसीलिए जैन परंपरा में इन्हें 'आदिनाथ' भी कहा जाता है। प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर 199 00 73
SR No.521355
Book TitlePrakrit Vidya 1999 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year1999
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy