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________________ आदिब्रह्मा तीर्थंकर ऋषभदेव __-डॉ० सुदीप जैन सम्पूर्ण भारतीय-परम्परा में तीर्थंकर ऋषभदेव का अग्रणी स्थान सर्वसम्मतरूप से स्वीकार किया गया है। उन्होंने जहाँ कृतयुग के आरम्भ में असि-मसि-कृषि-वाणिज्य-विद्या और शिल्प की शिक्षा देकर मानव की सांस्कृतिक एवं सामाजिक पृष्ठभूमि का निर्माण किया था, वहीं नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास के लिए उन्होंने निर्ग्रन्थ श्रमणदीक्षा लेकर मोक्षमार्ग का प्रवर्तन भी किया था। इसीलिए समग्र भारतीय-परम्परा में उन्हें लौकिक एवं लोकोत्तर – दोनों मार्गों का 'आदिब्रह्मा' स्वीकार किया गया है। आद्य शंकराचार्य ने ऋषभदेव को ॐकार-स्वरूप प्रतिपादित किया है—“यश्छन्दसामषभो विश्वरूप: छन्देभ्योऽध्यमृतात् संबभूव । समेन्द्रो मेधया स्पृणोतु । अमृतस्य देवधारणो शरीरं मे विचर्षणाम् ।" – (तैत्तिरीयोपनिषद्, शांकरभाष्य, शिक्षाध्याय 4/1) अर्थ:-यह ॐकार छन्दों (वदों या वेदभाष्य छान्दस्) में वृषभरूप सर्वश्रेष्ठ है। यह विश्वरूप भी है। (अर्थात् इस ॐकारस्वरूपी परमात्मा को वेदों में ऋषभ और विश्वरूप कहा गया है।) वह वेदों (राम) के अमृत-अंश से उत्पन्न हुआ है। वह इन्द्रस्वरूपी (सर्वशक्तिमान ॐकार) मुझे मेधा (बुद्धि) से बलवान् करे। हे देव ! मैं इस अमृततत्त्व (आत्मज्ञान) का धारक बनूँ। मेरा शरीर इसके लिए समर्थ (योग्य) बने। ऋषभदेव के साथ लगा देव' पद प्राचीन-परम्परा में ऋषभदेव का ही सूचक अन्त्यपद रहा है, जैसे आजकल गाँधी जी, पंडित जी या नेहरु जी आदि पदों से राष्ट्रपिता एवं प्रथम प्रधानमंत्री जी आदि की स्पष्ट पहिचान जनमानस में बनी हुई है। इसके लिए पूरा नाम लेने की अपेक्षा नहीं होती है। इसी रूप में ऋषभदेव को ॐकारस्वरूपी 'कातन्त्र व्याकरण' के कर्ता आचार्य शर्ववर्म ने भी सादर स्मृत किया है “ॐकारं बिंदुसंयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनः । कामदं मोक्षदं देवमोंकाराय नमो नमः ।।" -(डॉ० जानकीप्रसाद द्विवेदी, डी० लिट् शोध प्रबन्ध) यहाँ कई लोग भ्रमवश देवम्' पद की जगह चैव' पद का प्रयोग करते हैं, जो कि भ्रामक है तथा मूलविरुद्ध है। अर्थ की संगति भी इससे नहीं बैठती है। 'श्रीमद्भागवत' के कर्ता ने ऋषभदेव के 'परमगुरु' के विशेषण से सादर अलंकृत किया है—“इति ह स्म सकलवेद-लोक-देव-ब्राह्मण-गवां परमगुरोर्भगवत ऋषभाख्यस्य विशुद्धाचरितमीरितं पुंसां समस्तदुश्चरिताभिहरणं परममहामंगलायतनम्....।" -(भागवत, 5, 6/16) अर्थ:—इसप्रकार सम्पूर्ण वेद, लोक, देव, ब्राह्मण और गायों के 'परमगुरु' भगवान् प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '99 0071
SR No.521355
Book TitlePrakrit Vidya 1999 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year1999
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size10 MB
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