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जाय और राम के सेवक के रूप में ही उसे जीवन-यापन न करना पड़े; अत: वह दशरथ के पास पूर्व-सुरक्षित वरदानों की मांग करके राम को वनवास एवं भरत को राजगद्दी देने का प्रस्ताव करती है। अन्तत: वह अपने प्रयास में सफल भी हो जाती है।
सम्पूर्ण राम-कथा में कैकेयी ही एक ऐसी पात्र है, जिसके माध्यम से कवि ने तत्कालीन एक पारिवारिक स्वार्थ-लिप्सा, ईर्ष्या, विद्वेष एवं कलहकारी वृत्ति को अभिव्यक्त किया है। यद्यपि वह रघुकुल के लिए अशुभ-नक्षत्र के रूप में उभरकर सम्मुख आती है," फिर भी आगे चलकर वह भी महाकवि की सहानुभूति अर्जित कर लेती है। शीघ्र ही उसका विवेक जागृत होता है और वह अपने दुष्कृत्यों का पश्चात्ताप ही नहीं करती, अपितु संसार के क्षणिक सुखों से वैराग्योन्मुख होकर वह 'आर्यिका व्रत' धारण कर लेती है और अपने व्यक्तित्व को स्वतन्त्र आध्यात्मिक विकास में लगाकर सद्गति प्राप्त करती है।
चन्द्रनखा:-चन्द्रनखा रावण की छोटी बहिन एवं पाताल-लंकेश्वर खर-दूषण की पत्नी है। वह जाति से निशाचरी है। जहाँ वह शारीरिक दृष्टि से सुन्दर एवं सुडौल है, वहीं अत्यन्त कुलक्षणी एवं मायाविनी भी।
जिस समय उसके इकलौते पुत्र शम्बूक का वध हो जाता है, उस समय उसकी जननी होने के कारण चन्द्रनखा गगन-भेदी रुदन करती है। उस अवसर पर उसका यह रुदन स्वाभाविक ही है; किन्तु जैसे ही वह आततायी वधिक लक्ष्मण का पता लगा लेती है, तो वह उसके (लक्ष्मण) के युवकोचित रूप-सौन्दर्य को देखकर अपने मन का सारा दुःख भूल जाती है और वह उस पर कामासक्त हो जाती है। कामासक्ति की इसी प्रेरणा से वह राम-लक्ष्मण से अपने साथ विवाह का प्रस्ताव भी रखने की धृष्टता करती है। जब राम-लक्ष्मण उसके प्रस्ताव को ठुकरा देते हैं, तब कामासक्ति के कारण वह विक्षिप्त होने लगती है। उसकी यह कामासक्ति उस चरमकोटि तक पहुँचती है, जहाँ नारी अपना विवेक खोकर विक्षिप्तावस्था में अपने ही शरीर को नोंच-खसोट लेती है।" ..
महाकवि स्वयम्भू ने चन्द्रनखा को उसी विक्षिप्तावस्था में छोड़कर उसके चरित्र की इतिश्री नहीं कर दी। आगे चलकर उसने उसके चरित्र को उन्नत करने का प्रयत्न भी किया है। परिस्थितियों के आरोह-अवरोह में उसका विवेक शीघ्र ही जागृत होता है। वह अपने दुष्कृत्यों पर स्वयं पश्चात्ताप करती है और संसार की क्षणिकता का ध्यान कर 'आर्यिका व्रत' ग्रहण करती है और कठोर तपश्चर्या करती हुई सद्गति प्राप्त करती है।
यहाँ यह ध्यातव्य है कि 'पउमचरिउ' के प्रणेता ने पर-महिला-स्पर्श के त्याग तथा अहिंसा की परम्परा को ध्यान में रखते हुए श्रमणेतर कवियों की तरह लक्ष्मण द्वारा चन्द्रनखा के नाक-कान नहीं कटने दिए। इतना अवश्य है कि चन्द्रनखा के दुर्व्यवहार से जब लक्ष्मण को क्रोध आ जाता है, तब वह अपने अंगूठे से बन्दमुख सूर्यहास खड्ग' को दबाकर उत्तेजित कर बैठता है। फिर भी विवेक उसका साथ नहीं छोड़ता और वह
प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '99
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