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________________ 'चूनडी रासक' में चूनडी (महिलाओं के ओढ़ने चुनरिया) को प्रतीक बनाकर कवि ने सरस संवादात्मकरूप से जैनशास्त्र के मार्मिक रहस्यों को प्रकट करने का अनथक प्रयास किया है, जिससे प्रत्येक पाठक जैनशासन के मूलभूत रहस्यों तथा उनके भेद-प्रभेदों से भली-भाँति अवगत हो सके। गीतिकाव्य के रूप में कवि एक मुग्धा नायिका से अपने पति से परिहास करती हुई निवेदन कराते हैं कि “हे सुभग! कृपया जिनमंदिर में जाकर मुझे एक ऐसी अनुपम चूनडी शीघ्र ही छपवा दीजिए, जिससे मैं जिनशासन के मार्मिक रहस्यों को सरलता से समझ सकूँ और उनमें निपुण हो जाऊँ। यदि आज वैसी चूनड़ी नहीं छपा देते हैं, तो मुझे उस छीपे से उलाहना तथा तानाकशी सुननी पड़ेगी।" तब पति अति स्निग्ध भाव से उससे कहता है कि-हे मुग्धे! वह छीपा मुझे जैन-सिद्धांतों के रहस्यों के मर्म से परिपूर्ण एक चूनडी छपाकर देने को कहता है, जो वस्तुतत्त्व के विविध वाग्भूषण-स्वरूप आभूषणों से अलंकृत होगी। जिनके अध्ययन से जिनशासन के मार्मिक रहस्यों का उद्घाटन होता है, इनसे मनरूपी शरीर की अद्वितीय शोभा बढ़ेगी तथा भेदविज्ञान के सच्चे स्वरूप को समझने में समर्थ हो सकेगी।" मुग्धा नायिका यह सुनकर बड़ी प्रसन्न हो जाती है और कवि जैन-सिद्धान्त के मार्मिक रहस्यों से छपी हुई चूनडी के रूप में इस सरस कृति की रचना को आगे बढ़ाते हैं। 'चूनडी रासक' में मुनि विनयचन्द्र ने अपनी गुरु-परम्परा द्वितीय छंद में इसप्रकार अंकित की है “माथुरसंघहो उदय मुणीसरु, पणविवि बालइंदु गुरु गणहरु । जंपइ विणय-मयंकु मुणि, आगमु दूगमु जइवि ण जाणऊं।। मालिज्जहु अवराहु मुहु भवियहुं यहुं चूनडिय वरवाणऊं। विणयं वंदिवि पंचगुरु.. मुनि विनयचन्द्र (विणय मयंकु) के गुरु बालचन्द्र (बालइंदु) थे और उनके गुरु उदयचन्द्र थे, जो माथुरसंघी थे। उदयचन्द्र पहले गृहस्थ थे और इनकी पत्नी का नाम देमति दिवमती) था। गृहस्थावस्था में लिखी इनकी सुगंधदशमी कथा' उपलब्ध है, जिसमें वे स्वयं लिखते हैं:___“णिय-कुलणह-उज्जोइय-चंदहं सज्जण-मण-कय-णयणाणंदई ।" अपनी सुशीला पत्नी का उल्लेख करते हुए वे लिखते हैं . “अइ सुसील देमइयहि कंतइं" श्री उदयचंद मुनि विनयचंद्र के विद्यागुरु थे, दीक्षागुरु नहीं। वे मथुरा के पास यमुना-तट पर महावन' नामक नगर रहा करते थे। वहीं के जिनालय में रहकर मुनि विनयचंद ने ‘णरग-उतारी-रासक' की रचना की थी, जिसमें महावन को स्वर्ग-खण्डतुल्य निरूपित किया है: ........।। 00 50 प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '99
SR No.521355
Book TitlePrakrit Vidya 1999 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year1999
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size10 MB
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