SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 50
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इसप्रकार हैं— दुव्व (बुन्देली-दूब) =दूर्वादल (1/10/1), ढुक्की (बुन्देली-ढूँकना) =झाँकना (1/7/7), डोल्ल (बुन्देली डोलना=हिलना अथवा व्यर्थ घूमना)=डोलना (1/19/1), लक्कड़ (बुन्देली एवं ब्रज) =मिट्टी (2/26/1), ईंट (2/26/2, 6), लड्डू (2/26/4), पित्तलि=पीतल (46/9/8), फेणी फेनी नामक मिठाई (2/26/4), चइत (भोजपुरी) चैत्रमास (3/10/10), चोजु (बुन्देली)=आश्चर्य (3/14/4), कल्ल=काल (46/17/7), वक्खाण (बुन्देली बखान) =व्याख्यान (1/14/6) आदि। इसप्रकार संक्षेप में 'तिसट्ठि-महापुराण' का सामान्य परिचय प्रस्तुत किया गया है। वस्तुत: यह ग्रन्थ मध्यकालीन-साहित्य की एक महत्त्वपूर्ण कृति है। अपभ्रंश-भाषा, इतिहास एवं संस्कृति की दृष्टि से तो यह महत्त्वपूर्ण है ही, कवि के संकेतानुसार यदि इसकी सचित्र प्रतिलिपि भी उपलब्ध हो गई, तो वह मध्यकालीन चित्रकला की दृष्टि से भी अनुपम सिद्ध होगी। | प्रेरक-प्रसंग 1 नाम का व्यामोह आचार्यप्रवर शांतिसागर जी के संघ में एक मुनिश्री नेमिसागर जी थे। एक बार पूज्य आचार्य शांतिसागर जी के अनन्य भक्त श्रावक श्रेष्ठि (गुलाबचंद जी) ने पूज्य आचार्यश्री से पूछा कि “आचार्यश्री ! मैं दस हजार रुपये दान देना चाहता हूँ, कहाँ हूँ? कृपा करके मार्गनिर्देशन करें।" तो आचार्य शांतिसागर जी बोले कि “कमाते समय क्या मेरे से परामर्श या अनुमति ली थी, जो अब उपयोग करते समय पूछ रहे हो? जहाँ जी में आये, वैसा करो।" तब वह श्रेष्ठि संघस्थ मुनि श्री नेमिसागर जी के पास गये और यही जिज्ञासा रखी, तो मुनि नेमिसागर जी ने अपने नाम से चलनेवाली किसी संस्था में वह धनराशि दान देने की प्रेरणा दी। तदनुसार ही उक्त श्रेष्ठि ने दस हजार रुपयों की धनराशि मुनिश्री द्वारा निर्दिष्ट संस्था में दान कर दी। जब यह वृत्तान्त आचार्यप्रवर श्री शांतिसागर जी को विदित हुआ, तो वैयक्तिक नाम से संस्था चलाने एवं उसके लिए धनराशि दान देने की प्रेरणा देने के कारण उन्होंने मुनि श्री नेमिसागर जी को संघ से अलग कर दिया तथा बहुत अनुनय करने के बाद भी यह कहकर पुन: संघ में सम्मिलित करने से मना कर दिया कि “यदि मैं तुम्हें संघ में वापस ले लूँगा, तो मुनियों में अपने नाम से संस्था बनाने व दानराशि/चंदा की प्रेरणा देने की खोटी परम्परा चल पड़ेगी। मैं इस पद्धति के सख्त खिलाफ हूँ।" ___ इतना ही नहीं, उन्होंने यावज्जीवन उक्त मुनिश्री एवं श्रेष्ठि से आशीर्वाद देने के अतिरिक्त किसी तरह की कोई बातचीत भी नहीं की, ताकि उनको प्रश्रय व प्रोत्साहन नहीं मिले। आज अपने आपको आचार्य शांतिसागर जी की परंपरा में कहलाने वाले और अपने नामों से संस्थायें स्थापित करने वाले श्रमण कृपया इस तथ्य की ओर ध्यान दें। ** 00 48 प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '99
SR No.521355
Book TitlePrakrit Vidya 1999 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year1999
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy