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________________ आजन्ममृत्युपर्यन्तं तप: कुर्वन्तु साधवः । नैकस्यापि पदस्येह ज्ञानावृत्तिपरिक्षयः ।। सर्वशास्त्रविदो धीरान् गुरूनाश्रित्य कुर्वत: । स्वाध्यायं तत्क्षणादेव पदार्थानवगच्छति।। तपोवृद्धिकरश्चासौ स्वाध्याय: शुद्धमानसैः। कथ्यतेऽनेकधा तावदतीचार-विशुद्धितः ।।" -(सिद्धान्तसार, 11/27-30) अर्थ:-मनुष्य यदि स्थूल और सूक्ष्म पदार्थों के विषय में नहीं जानता है, वह ज्ञानावरण का ही प्रभाव है। वास्तव में आत्मभाव वैसा (ज्ञान रहित) नहीं है। 'तात्पर्य यह है कि उस ज्ञानावरण का क्षय स्वाध्याय से होता है, जिससे आत्मा को पदार्थ-विषयक परिज्ञान होता है। साधुजन जन्म से मृत्यु-पर्यन्त भले ही तप करते रहें, किन्तु स्वाध्याय के बिना एक पाद ज्ञानावरण का भी परिक्षय नहीं हो पाता है। जो सम्पूर्ण शास्त्रविद्, धैर्य गुणयुक्त गुरुजनों का आश्रय लेकर स्वाध्याय करते हैं, वे शीघ्र ही पदार्थों को जान लेते हैं। यह स्वाध्याय तप में वृद्धिकारक है। इससे अतिचार-विशुद्धि होती है। शुद्ध हृदय आचार्यों ने इसे अनेक प्रकार से कहा है “चित्तमर्थनिलीनं श्चच्चक्षुरक्षरपंक्तिषु । पत्रेऽस्य संयम: साधो: स स्वाध्याय: किमुच्यते ।। श्रद्धावान् यदि सत्साधुः स्वाध्यायं कुरुते सदा। पर: स्याद् ध्यानवान् वेगात् स याति परमां गतिम् ।।" -(सिद्धान्तसार, 11/32-32) (स्वाध्याय से चित्त और इन्द्रियों का निरोध होकर एकाग्रता की प्राप्ति होती है) स्वाध्याय के समय चित्त तो पदार्थों में मग्न रहता है और नेत्र पत्र पर लिखित अक्षर पंक्तियों के पाठ में एकाग्र रहते हैं। इसप्रकार साधु के लिए संयम का साधन यह स्वाध्याय है। इसकी प्रशंसा किन शब्दों में की जा सकती है? यदि श्रद्धावान् श्रेष्ठ मुनि सदैव स्वाध्याय में उपयोग लगाता है, तो वह उत्कृष्ट ध्यानसिद्धि को प्राप्त करता है एवं परमगति को पाता है। “न शीतलाश्चन्दनचन्द्ररश्मयो, न गांगमम्भो न च हारयष्टयः । यथा मुनेस्तेऽनघवाक्यरश्मय: शमाम्बुगर्भा: शिशरा विपश्चिताम् ।। -(शीतलजिनस्तोत्रम्, 46) चन्दन और चन्द्रमा की रश्मियाँ शीतल नहीं हैं, गंगा का जल और हार (मोती की मालाएं) भी वैसी शीतल नहीं हैं, जैसी हे महामुने ! आपकी निर्दोष वाक्यरश्मियाँ हैं, जिनमें शम का शीतल जल मिला हुआ है और जो विद्वानों के लिए शीतलता उत्पन्न करनेवाली हैं। प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर '99 00 37
SR No.521355
Book TitlePrakrit Vidya 1999 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year1999
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size10 MB
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