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________________ आवरण पूज्य आचार्यश्री समन्तभद्र जी एवं आचार्यश्री विद्यानन्द जी महाराष्ट्र प्रान्त के एक छोटे-से गाँव में जन्मे तेजस्वी बालक देवचन्द ने श्री अर्जुनलाल सेठी जैसे क्रान्तिकारियों के साथ स्नातक शिक्षा प्राप्त करने के बाद आत्मसाधना के पवित्र मार्ग का अनुसरण किया और पूज्य आचार्य शांतिसागर जी से क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण की। श्रामण्य की कठोर साधना के लिए अपने आपको तैयार कर आचार्यश्री वर्धमानसागर जी ( आचार्य शांतिसागर जी के बड़े भाई) से मुनिदीक्षा अंगीकार की और बीसवीं शताब्दी के महान् संत 'समन्तभद्र मुनिराज' के रूप में देश और समाज को एक महान् शिक्षाविद्, मनीषी साधक, निस्पृह तपस्वी के अद्वितीय व्यक्तित्व की प्राप्ति हुई । आपके दूरदर्शी चिंतन ने दक्षिण भारत में समाज के शैक्षणिक स्तर में संस्कार - समन्वित सुधार के लिए गुरुकुल-शिक्षा प्रणाली का सूत्रपात हुआ तथा आपश्री के पावन संस्पर्श से प्रवर्तित 18 गुरुकुल महाराष्ट्र एवं कर्नाटक प्रांतों में आज भी चल रहे हैं; जिनमें हजारों विद्यार्थी ज्ञानार्जन कर रहे हैं। आपने गुरुकुल प्रणाली के सूक्ष्म अध्ययन के लिए गुरुकुल कांगड़ी (हरिद्वार) जाकर गुरुकुल के वातावरण एवं प्रबंध व्यवस्था का साक्षात् अवलोकन किया । पृष्ठ के बारे में आप लोकैषणा से अत्यन्त दूर थे, यहाँ तक कि आपने यावज्जीवन 'आचार्य' पदवी तक स्वीकार नहीं की, वरन् आपके स्वर्गारोहण के पश्चात् चतुर्विध संघ एवं समाज ने आपको यह पद संबोधित किया। यही नहीं, आपने अपनी समाधि से पूर्व स्पष्ट निर्देश दे दिया था कि देहत्याग के बाद शरीर की कोई शोभायात्रा या जलूस नहीं निकलेगा, दहन - क्रिया में चंदन की लकड़ियाँ नहीं डालीं जायेंगीं तथा आपके नाम से कोई संस्था नहीं बनायी जायेगी । आपके करकमलों से आर्यनंदि जी मुनिराज एवं महाबल जी मुनिराज जैसे संतों की दीक्षाविधि हुई, तो ब्र० तात्या जी चँवरे, ब्र० माणिकचंद जी भिसीकर, ब्र० गजाबहिन जैसे दशाधिक ब्रह्मचारी विद्वानों की समर्पित पीढ़ी का निर्माण हुआ । आप स्वयं निरन्तर ग्रन्थों के साथ आगमग्रंथों के स्वाध्याय में लीन रहते थे तथा आपके आशीर्वाद से स्थापित अनेकान्त शोध संस्थान, बाहुबलि कुंभोज के द्वारा डॉ० ए०एन० उपाध्ये, डॉ० विलास संगवे, आदि अनेक वरिष्ठ मनीषियों के द्वारा आगमग्रंथों के प्रामाणिक संस्करण एवं महत्त्वपूर्ण कृतियों का निर्माण होकर उनका प्रकाशन हुआ । आपश्री के ही आशीर्वाद से तीर्थों की सुरक्षा लिए आज से 2 वर्ष पूर्व एक करोड़ रुपयों की राशि का ध्रुवफंड बना । आपश्री का 97 वर्ष की आयु में समाधिमरण हुआ । आचार्यश्री विद्यानन्द जी मुनिराज से आचार्यप्रवर समन्तभद्र जी का विशेष वात्सल्य था। 1988 ई० में आ० समन्तभद्र जी के पास रहकर आचार्य विद्यानन्द जी ने सामायिक की प्रायोगिक विधि, शास्त्रों से नोट्स लेने की कला एवं ध्यानसाधना की सूक्ष्मविधियाँ सीखीं । आचार्य विद्यानन्द जी की प्रेरक सन्निधि में सन् 1983 ई० में समन्तभद्र दिव्यावदान समारोह' का भव्य आयोजन हुआ । इन दो महान् संतों का यह पावन मिलन 'मणिकांचन योग' के समान प्रेरणास्पद रहा । समाज को इन दो महान् विभूतियों से प्रेरणा एवं दृष्टि मिले, इस भावना से यह दुर्लभ चित्र यहाँ प्रकाशित है। - सम्पादक
SR No.521355
Book TitlePrakrit Vidya 1999 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year1999
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size10 MB
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