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'शाकाहार-मांसाहार' में भेद ही नहीं रहता । भक्ष्य-अभक्ष्य का भेद नहीं होता । क्यों लोग खेती करते ? क्यों भ. ऋषभदेव लोगों को असि-मसि-कृषि सिखाते ? बस ! एक ही प्राणी मारो और साल भर तक खाते रहो।
जैनदर्शन में जीवों का वर्गीकरण बहुत सूक्ष्मतापूर्वक किया गया है । एकेन्द्रिय जीव से उसका विकास होतेहोते, अनन्त पुण्य का संचय होने पर उसको पाँच परिपूर्ण इन्द्रियाँ मिलती हैं । दस प्राण और छह पर्याप्तियाँ मिलती हैं । पुनर्जन्म को माननेवाले अन्यधर्म भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि जीव ८४ लाख योनि से भटककर जब पुण्य का संचय और बुरे कर्मों का क्षय करता है तब उसे पाँचों इन्द्रियों से परिपूर्ण शरीर तथा मन की प्राप्ति होती है । उसमें भी ज्ञान, दर्शन, योग, उपयोग आदि गुणों का प्रकटीकरण भी पंचेन्द्रिय में ज्यादा होता है । जिससे वह व्रत-प्रत्याख्यान करने की क्षमता रखता है, कर्म काटने का सामर्थ्य रखता है । इसीलिए तो आगम में, नरक में जाने के चार कारणों में एक कारण, ‘पंचेन्द्रिय का वध' स्पष्ट रूप से दिया है न कि 'एकेन्द्रिय' ।
एकेन्द्रिय जीव की हिंसा हम प्राय: अर्थदण्ड के लिए करते हैं, अपनी जीवनचर्या चलाने के लिए करते हैं। परन्तु पंचेन्द्रिय जीव की हिंसा प्राय: जिह्वा की लोलुपता के लिए, निर्दयता से, क्रूर भावों से की जाती है । इससे 'जीवन-चक्र' बिगडता है । यह 'अनर्थदण्ड' है, इसमें ज्यादा पाप है । यह समझाने के लिए हम आज के परिवेश से अनेकों उदाहरण दे सकते हैं।
जैसे - एक प्रधानमंत्री की आत्मा और एक भिखारी की आत्मा समान है फिर भी यदि प्रधानमंत्री मरता है तो राष्ट्रीय शोक और भिखारी मरे तो किसी को पता भी नहीं चलता।
एक नकली हार है और दूसरा सोने में भी हिरे-पन्ने से जुड़ा हुआ है । दोनों में से किसके गुम होने पर ज्यादा दुख होगा ? अर्थात्, जिसका मोल, सुन्दरता, उपयोगिता अधिक, उसका गुम होना अधिक दुःखदायक होगा।
ऐसे अनेकों तथ्य और उदाहरण है फिर भी उससे भी कहीं ज्यादा मायने रखती है, 'हमारी खाने के प्रति आसक्ति', जो इन भक्ष्य-अभक्ष्य का विवेक न रखने के कारण पाप को बढावा देती है।
माना कि हरेक आत्मा समान है । इसको नकारा भी नहीं जा सकता । फिर भी उनकी विशेषताओं में तो फर्क है। इसलिए भ. महावीर ने कहा है कि, 'नय' और 'कर्मसिद्धान्त' का आधार लेकर, किसी तथ्य की सत्यता का निर्णय लिया जाता है । इसकी पुष्टि के लिए 'आचारांग' और 'उत्तराध्ययन' में अनेकों उदाहरण मिलते हैं।
आखिर में, मैं कहना चाहती हूँ कि - ‘क्या हमारा पेट मरघट है जो जीवों को मारों, उसमें डालते रहो ?'
(१७) अप्रत्याख्यान आणि प्रत्याख्यान : एक चिंतन
कल्पना मुथा सर्व संसारी आत्म्यांची स्वाभाविक स्थिती ही अप्रत्याख्यानी आहे. म्हणजेच कर्मबंधाने युक्त आहे. माणसाला जगायला अनेक आवश्यकता लागतात. परिवारपालन, उपजीविका, क्षुधानिवृत्ती यासाठी षट्कायिक जीवांचा सढळ हाताने वापर करणे, त्यांना त्रास देणे, त्यांच्यावर अधिकार गाजवणे, जरा कुठे अनुकूलता मिळाली की त्यांच्या सहवासात येऊन त्यांची हिंसा करणे, अर्थात् हिंसा करणे हे जरी लक्ष्य नसले, त्यांच्याविषयी अनुकंपा, संवेदनशीला असली तरी उदरनिर्वाहासाठी नाईलाजाने हिंसा होत रहाते आणि त्यांचा हा प्रवाह अखंडपणे चालू रहातो आणि तरी सुद्धा व्रत न घेता संसारात निवास करणे आणि षट्जीवांचा सहवास हेच सर्व जीवांच्या अविरतीचे कारण होय. आस्रवाचे कारण होय. ___अप्रत्याख्यान हा स्वभाव आहे. तो सृष्टीचा नियम आहे. मानवी मनातल्या सगळ्या विकृती, दुष्प्रवृत्ती कोणत्या ना कोणत्या रूपात पापाच्या श्रेणीत येतात. यामुळे त्यांचे पापकर्मबंध हे चालू असतात. त्यापासून परवृत्त होण्यासाठी त्याचे निराकरण करण्यासाठी जैन परंपरेत प्रत्याख्यान (प्रतिक्रमण) ही एक महाऔषधी सांगितली आहे