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'कमल' हासिल करने आये हुए सभी दिशाओं के पुरुष तत्कालीन, तज्जीवतच्छरीरवाद, पंचमहाभौतिकवाद, ईश्वरकारणिकवाद, नियतिवाद, श्रमण परम्परा के प्रतीक हैं । तत्कालीन समाज में ऐसी भिन्न-भिन्न परम्परा, विचारधाराएँ थी । उनकी एकदूसरे के साथ चर्चाएँ चलती थी, वाद-प्रतिवाद होता था, आरोप-प्रत्यारोप, उसका समाधान होता रहता था । हालाँकि उसको खण्डन-मण्डन का कठोर तार्किक स्वरूप नहीं था।
एक परम्परा की मान्यता और आचरण अलग-अलग था । जैन श्रमण का आचरण बहत कठोर था । वे आजीवन निरन्तर ब्रह्मचर्य पालन करते थे । भिक्षा माँगकर निर्दोष आहार ग्रहण करते थे । वे अत्यन्त संयमी, यतनावान होते थे । पंचयाम-धर्म का चलन था । साथ ही साथ पार्खापत्य जैसे पार्श्वपरम्परा के श्रमणों का चातुर्याम धर्म भी, कहीं कहीं मौजूद था । चातुर्याम से पंचयाम में परावर्तित होने की प्रक्रिया चल रही थी । अन्य परम्परा के साधुओं का, मुनियों का, यतियों का आचरण इतना कठोर नहीं था । वे आयुर्वेदिक दवाएँ, मैथुन, परिग्रह, प्राणातिपात से निवृत्त नहीं थे । जलस्नान, अग्नितप, कन्दमुलभक्षण करते थे । दण्ड-कमण्डल धारण करते थे। तापस गाँव में, गाँव के बाहर, जंगलों में रहते थे। कई भिक्षु मांसाहार भी करते थे । कई जैन तथा अजैन साधु नग्न रहते थे । कई तापस गुप्तचर का काम भी करते थे । समाज में कई लोग इन सबका उपहास भी करते थे लेकिन अधिक प्रमाण में गृहस्थ इनको भिक्षा देते थे, आदरसम्मान करते थे।
समाज में ‘गोत्र' संकल्पना का बड़ा ही प्रभाव था । आर्य-अनार्य, उच्च गोत्र-नीच गोत्र, लोग मानते थे । इनकी भाषाएँ भी अलग-अलग थी। समाज में संयुक्त कुटुम्बपद्धति का प्रचलन था । कुटुम्ब में कुटुम्बप्रमुख की सत्ता चलती थी। समाज में दास-दासी जैसी कठोर व्यवस्था भी थी। खाने-रहने के बदले, ये आजीवन सेवा करके गुजारा करते थे। इन्हें किसी भी तरह का स्वातन्त्र्य नहीं था । इनका उल्लेख हमेशा पशुओं के साथ आता है। झको पशुओं से भी गया-गुजरा समझा जाता था । समाज में चार वर्णों का प्रचलन था । ब्राह्मणों के लिए बडे-बडे भोजों का आयोजन होता था । वणिक व्यापार करते थे।
समाज में मन्त्र-तन्त्र, गण्डा-दोरा करनेवाले लोगों की भरमार थी । वे लोगों की असहायता का फायदा लेकर उन्हें लूटते थे । नागकुमार, यक्ष, भूत इत्यादि का पूजन होता था । उनके लिए बलि चढाया जाता था । देवोंके सामने पशुबलि देने का रिवाज था । समाज में अन्धश्रद्धा, पूजाअर्चा, कर्मकाण्ड की भरमार थी।
अलग-अलग ४० प्रकार के विद्याओं का अध्ययन लोग करते थे । इन विद्याओं का निर्देश इस ग्रन्थ में है । लोग अनेक प्रकार के व्यवसाय करते थे, जैसे खेती, मच्छिमारी, भेडे-बकरी चराना, गोपालन इत्यादि । मसूर, चावल, तिल, उडद, मूंग, वाल इत्यादि तरह-तरह के धान खेती में उगाये जाते थे । मुख्य फसल-अन्तर फसल ऐसी व्यवस्था होती थी। तिल का तेल निकाला जाता था । खेती के लिए ऊँट, गाय, बकरी, गधे पाले जाते थे । उनको रखने के लिए बडी-बडी शालाएँ बनायी जाती थी । लोगों के घर, चारों ओर से खुले और बडे-बडे रहते थे । अतिथि के लिए घर के दरवाजे हमेशा खुले रखे जाते थे।
मनोरंजन के लिए प्राणियों की शिकार होती थी। लोग बड़े पैमाने में मांसाहारी थे ।
कई लोग उदार कामभोग भोगते थे । नाच-गाना, गहने पहनना, चन्दन जैसे सुगन्धी लेप लगाना, मालाएँ पहनना, मणि-सुवर्ण धारण करना - उनकी विलासी रहनसहन तथा समृद्धि का दर्शन कराती थी। लेप' श्रावक के वर्णन में हमें तत्कालीन समृद्धि का दर्शन होता है । विशाल-बहुसंख्य भवन, चांदी-सोना, गाय-भैंस, नोकर-चाकर इन सभी को 'धनस्वरूप' माना जाता था।
लोग घूमने के लिए गाडी, रथ, घोडागाडी, पालकी आदि वाहनों का वापर करते थे । व्यापार के लिए विदेश भी जाते थे । यात्रियों के लिए रास्ते में 'उदकशाला' (प्याऊ) तथा रहने के लिए धर्मशाला' की व्यवस्था होती थी । इस उदकशाला के वर्णन से हमें तत्कालीन वास्तुकला का उत्कर्ष नजर आता है।
पुण्डरिक अध्ययन में राजा' का वर्णन है। उससे तत्कालीन राज्यव्यवस्था पर प्रकाश पडता है । राजा अत्यन्त कर्तव्यप्रिय होते थे । शूरवीरता उनके अंग में कूटकूट के भरी हुई थी । राजा और धर्म का सम्बन्ध बहुत गहरा