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'संस्कृत की वैज्ञानिकता' तथा व्याकरणशास्त्र को
पतञ्जलि की देन
योगिनी हिमांशु व्यास
'ऋग्वेद' की इस ऋचा' का व्याकरणपरक अर्थघटन करके मेधावी वैयाकरण पतञ्जलि ने संस्कृत व्याकरण के अध्ययन का महत्त्व स्पष्ट किया है । महान् वृषभ देव (नित्य शब्द तत्त्व - शब्द ब्रह्म) के नाम, आख्यात, उपसर्ग और निपात - ये चार सींग हैं । भूत, भविष्यत् और वर्तमानकाल - ये तीन पैर या चरण हैं । नित्य और कार्य (उत्पाद्य) दो शब्दात्मा (दो शब्द स्वरूप) - दो मस्तक हैं । प्रथमादि सात विभक्तियाँ - सात हाथ हैं । उच्चारण में सहयोगी स्थान-हृदय, कण्ठ और मस्तक में आबद्ध वृषभ देव मत्र्यों में प्रविष्ठ है। ऐसे महान् शब्दब्रह्म रूप देव के साथ हमारा सायुज्य होने की अभिलाषा से व्याकरण का अभ्यास करना चाहिए।
व्याकरण की सहाय से सुसंस्कृत वाणी का माहात्म्य दर्शाते हुए 'ऋग्वेद' में कहा गया है कि विद्वद्गण अपनी बुद्धि से वाणी को शुद्ध करने के बाद वाणी का प्रयोग करते हैं । वैदिक कवि और विद्वान् वाणी में एक निश्चित प्रकार की व्यवस्था और विभाग की आकांक्षा रखते हैं - यह बात 'तैत्तिरीय संहिता'३ के उल्लेख से विदित होती है। शब्दों के साधुत्व के बारे में पतञ्जलि का कहना है कि 'एकः शब्दः सम्यग्ज्ञातः शास्त्रान्वितः सुप्रयुक्तः स्वर्गे लोके कामधुग् भवति ।' शब्दों का यथार्थ रूप में प्रयोग करने के विषय में पतञ्जलि कहते हैं कि व्याकरण-शास्त्र को जाननेवाला जो विद्वान् उचित समय पर शब्दों का यथार्थ रूप में प्रयोग करता है; वह वाणी के वास्तविक प्रयोग को जाननेवाला विद्वान्, परलोक में अत्यन्त उत्कर्ष को प्राप्त करता है और जो वाणी के समुचित प्रयोग को जाननेवाला अपशब्द-अशुद्ध शब्द का प्रयोग करता है; वह दूषित होकर नरक में जाता है।
___ इसी प्रकार पातंजल योगसूत्र में लिखा है : 'शब्दार्थप्रत्ययानामितरेतराध्यासात् संकरस्तत्प्रविभाग संयमात् सर्वभूतरुत ज्ञानम् । आशय यह है कि भाषा के सम्बन्ध में सदा से विचार होता रहा है, किन्तु संस्कृत भाषा का वैज्ञानिक अध्ययन आधुनिक युग की देन है । संस्कृत भाषा का 'विज्ञान' वह विशिष्ट ज्ञान हैं। जिनके आधार पर संस्कृत भाषा एवं उसके अंगों का विश्लेषण किया जाता है। भाषा का निर्माण मनुष्य के मुख से निकली स्वाभाविक ध्वनियों (वर्णों) से होता है । इस भाषा