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________________ 290 ग्रंथ समीक्षा SAMBODHI है, उसके कारण प्रस्तुत कृति न तो बुद्ध के 'धम्म का सम्यक् प्रतिपादन कर पा रही है और न अपने बुद्धिवाद के प्रति ईमानदार रह पा रही है। उसमें अनेक अन्तविरोध उभरकर सामने आ रहे है । प्रस्तुत आलेख में हम उन्हीं की समीक्षा का एक प्रयत्न करेंगे । ___ सर्वप्रथम पुस्तक के नामकरण में ही यह कहा जा रहा है - 'धम्म हमारा एक मात्र तारण हार' दूसरी और अपनी भूमिका में प्रो. बन्दिस्ते लिखते है कि "The Dhamma preached by the Buddha is not at all a Dharma (Religion) but is only a moral way of life." प्राकृत और पाली का एक सामान्य अध्येता भी यह जानता है कि Dhamma धम्म शब्द का संस्कृत या हिन्दी रूप 'धर्म' ही है, त्रिपिटक में अनेक स्थलों पर धम्म शब्द धर्म के अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ है । भगवान बुद्ध ने स्वयं कहा है कि "जो मुझे देखता है वह धर्म को देखता है और जो धर्म को देखता है वह मुझे देखता है" यहा बुद्ध ने स्वयं अपना धर्म से तादात्म्य स्थापित किया है, फिर यह कैसे कहा जा सकता है, बुद्ध ने धर्म का उपदेश ही नहीं दिया, उन्होंने मात्र 'धम्म' का उपदेश दिया । फिर सारनाथ में धर्मचक्र प्रवर्तन का क्या कोई अर्थ रह जायेगा ? पुनः प्रो. बन्दिस्ते की पुस्तक के इस शीर्षक का Dhamma only our saviour का भी क्या कोई अर्थ रहेगा । यदि बुद्ध ने किसी धर्म का उपदेश ही नहीं दिया, तो फिर वह मानवता का तारक कैसे होगा ? यदि प्रो. बन्दिस्ते यह कहे कि बुद्ध ने मात्र नैतिकता का उपदेश दिया धर्म का नहीं । तो मेरा पहला प्रश्न है कि क्या धर्म और नैतिकता दो अलग-अलग तथ्य है, जबकि आधुनिक युग के नीतिशास्त्री ब्रेडले अपनी पुस्तक "एथिकल स्टडीज" (Ethical Studies) में स्पष्टतः लिखते हैं कि "धर्म विहीन नैतिकता 'नैतिकता' नहीं है और नीति विहीन धर्म 'धर्म' नहीं है" | वे धर्म और नीति में तादात्म्य ही मानते हैं । पुनः अपने बचाव में प्रो. बन्दिस्ते यह लिखते है कि बुद्ध ने किसी ईश्वर(God) की स्थापना नहीं की है, अतः उनका 'धम्म' धर्म नहीं है। क्या धर्म और ईश्वर (God) की अवधारणा में कोई तादात्म्य है? क्या उनका बुद्धिवाद इसे स्वीकार करता है ? दुनिया में अनेक ऐसे धर्म और दर्शन है, जो ईश्वर को एक सृष्टिकर्ता के रूप में स्वीकार नहीं करते है ? न केवल भारतीय श्रमणधारा के अनेक धर्म जैसे - जैन, बौद्ध, आजीवक, अपितु मीमांसक, वैशेषिक, सांख्य और योग जैसी अनेक दार्शनिक परम्पराएँ ईश्वर को सृष्टि के कर्ता या नियन्ता के रूप में स्वीकार नहीं करती है। दूसरे आराध्य या उपास्य या चरम प्राप्तव्य के रूप में ईश्वर का प्रश्न है, प्रकारान्तर से वह जैन, बौद्ध, सांख्य या योग सभी में स्वीकृत रहा है अतः केवल ईश्वर को सृष्टिकर्ता एवं नियन्ता नहीं मानने का कारण बौद्ध धर्म को 'धर्म' नहीं कहना यह एक भ्रान्ति ही है। जैन धर्म में अरहंत परमात्मा और बौद्ध धर्म में बुद्ध न केवल आराध्य या उपास्य है, अपितु वे चरम प्राप्तव्य भी है । 'निर्वाण' जो चरम प्राप्तव्य है, वह बुद्धत्व से पृथक्-भूत नहीं है । तृष्णा का उच्छेद ही बुद्धत्व है और वहीं निर्वाण है। अत: धर्म केवल ईश्वर को सृष्टिकर्ता और नियन्ता मानने में ही है। यह प्रो. बन्दिस्ते की मिथ्या और अबौद्धिक अवधारणा है। भारतीय धर्म ग्रन्थों में धर्म की अनेक परिभाषाए मिलती है यथा - 'वत्थु सहावो धम्मो' (वस्तु का स्वभाव धर्म है), क्षमादि सद्गुण धर्म है (खमादि दस विहो धम्मो), अहिंसा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520786
Book TitleSambodhi 2013 Vol 36
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2013
Total Pages328
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size7 MB
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