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________________ Vol. XXXVI, 2013 शाकुन्तल की प्राकृतविवृति एवं प्राकृतच्छायायें 159 यहाँ जो सूचनाएँ प्रस्तुत की गई हैं वे केवल एक विहंगावलोकन है, सर्वेक्षण नहीं है । तथापि इससे इतना तो निश्चित ज्ञात होता है कि मध्यकालीन भारत में संस्कृत नाटकों में आये हुए प्राकृत संवादों को ठीक तरह से समझने के लिये विशेष प्रकार की पाण्डुलिपियों का निर्माण किया गया था, जिसमें संस्कृत नाटकों में आये हुए प्राकृत संवादों का स्वतन्त्र रूप में संस्कृत-छायानुवाद देने की प्रवृत्ति दिखाई देती है। जिसके फलस्वरूप अभिज्ञानशाकुन्तल, उत्तरामचरित, रत्नावली, प्रबोधचन्द्रोदय, धनञ्जयविजयव्यायोग एवं वेणीसंहार जैसे अनेक नाटकों की प्राकृतछायायें बनाई गई थी || यह भी उल्लेखनीय है कि देश-विदेश के विभिन्न ग्रन्थभण्डारों के अलग-अलग "डिस्क्रिप्टीव केटलोग्स ऑफ संस्कृत मेन्युस्क्रिप्ट्स" में, एवं "न्यू केटलोगस केटलोगरम्, मद्रास" में अभिज्ञानशाकुन्तल नाटक की प्राकृतविवृतियाँ एवं प्राकृतछायायें जितनी अधिक संख्या में दिखाई देती हैं उतनी अन्य नाटकों की नहीं देखाई देती है। अत: शाकुन्तल के प्राकृत-संवादों में आये हुए पाठभेदों का अभ्यास करने के लिये इन प्राकृतर्विवृतियाँ तथा प्राकृतच्छायाओं से कैसे सहायता मिल सकती है ? वह विचारणीय है । तथा यह भी परीक्षणीय है कि शाकुन्तल की पञ्चविध वाचनाओं में से कौन सी वाचना के साथ इन प्राकृतविवृतियाँ एवं प्राकृतछायाओं का सम्बन्ध है ? ॥ ३. अभिज्ञानशाकुन्तल की प्राकृत-विवृतिओं का प्राथमिक परिचय . अभिज्ञानशाकुन्तल की उपर्युक्त उन्नीस प्राकृतविवृतियाँ/प्राकृतछायावली पाण्डुलिपियाँ में से हमने जिन पाँच-सात पाण्डुलिपिओं का साक्षात् परिचय प्राप्त किया है वे इस प्रकार है : (क) भाण्डारकर ओरिएन्टल रिसर्च इन्स्टीट्युट, पूणे के संग्रह में जो (१८८७-९१ क्रमांक की) पाण्डुलिपि है, जिसका शीर्षक "शाकुन्तलप्राकृतविवृति" ८ पत्र हैं और यह देवनागरी लिपि में लिखित है । इसमें शाकुन्तल नाटक का मूल पाठ नहीं है। किन्तु इस नाटक में आनेवाली प्राकृत उक्तियों का केवल संस्कृतछायानुवाद ही रखा गया है। याने यहाँ पाण्डुलिपि का जो "शाकुन्तल-प्राकृतविवृति" ऐसा शीर्षक है, वह यथार्थ ही :- "है। यहं पाण्डुलिपि अपूर्ण है, चतुर्थ अङ्क के आरम्भ के तीन-चार संवादों के बाद कृति का पाठ खण्डित हुआ है । इसके मङ्गलश्लोक में लिखा गया है कि - नत्वा रामेशगुरवे द्विपास्यस्यापि भक्तित: । शाकुंतलप्राकृतस्य संस्कृतेनार्थ ईर्यते ॥ एवमेव, प्रथम अंक की समाप्ति पर लिखा है कि - इति शाकुंतलप्राकृतविवृतौ प्रथमोऽङ्कः । इसकी एक . सम्पूर्ण प्रति (स्केन कोपी) बडौदा से प्राप्त की गई है। जिसका क्रमांक - १२५९४ है, (R. Nambiyar, 1999) तथा उसके आरम्भ में उपर्युक्त श्लोक लिखा है। किन्तु अन्तिम में लिखा है कि - "इति शाकुन्तल प्राकृतविवृतौ सप्तमोऽङ्कः । इति शाकुन्तल-प्राकृतवे(वि)वृत्तं वीर्श्वरशर्मणा, गुणाकरसिद्धेभ्य: समर्पितमित्यवधेयमालंकारिक-धूर्वहद्भिः ।" यह वाक्य अतिसूक्ष्म अक्षरों से लिखा गया है । इस कृति के रचयिता व्यक्ति का नाम तो अज्ञात ही है, केवल वह अपने रामेश नाम के गुरु को प्रणाम करता है उससे इतना सूचित होता है कि रचयिता रामेश गुरु का कोई शिष्य है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520786
Book TitleSambodhi 2013 Vol 36
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2013
Total Pages328
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size7 MB
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