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Vol. XXXVI, 2013 शाकुन्तल की प्राकृतविवृति एवं प्राकृतच्छायायें
155 पाण्डुलिपि (क्रमांक-५४७०००१) भी द्रष्टव्य है । (२) कतिपय संस्कृत नाटकों की पाण्डुलिपियों के मध्य भाग में नाटक का मूल पाठ लिखने के उपरान्त चारों ओर हाँशिया (मार्जिन) के भाग में यथेच्छ रूप से प्राकृत संवादों का संस्कृत छायानुवाद भी लिखा जाता है। उदाहरण के रूप में - पाटण के "हेमचन्द्राचार्य ग्रन्थभण्डार" की अभिज्ञानशाकुन्तल की पाण्डुलिपि (क्रमांक-३४९/१६६३०) द्रष्टव्य है । (३) कुछ पाण्डुलिपियाँ ऐसी हैं कि जिनमें नाटक के मूल पाठ के साथ में कोई संस्कृत टीका भी लिखी जाती है
और उस टीका के अन्तर्गत प्राकृतसंवादों का संस्कृत भाषा में छायानुवाद दिया जाता है। जिसके कारण ऐसी पाण्डुलिपि “पञ्चपाठी" प्रकार की बन जाती है। क्योंकि पाण्डुलिपि के मध्य भाग में नाटक का मूल पाठ लिखने के बाद, चारों दिशाओं में जो हांशिया (मार्जिन) का भाग खाली रहता है उसमें चौपास टीका लिखी जाती है। उदाहरण के रूप में - भाण्डारकर ओरिएन्टल रिसर्च इन्स्टीट्युट, पूणे में संगृहीत "शाकुन्तल, टिप्पण के साथ" शीर्षकवाली पाण्डुलिपि (क्रमांक ४०९(१८८४-८७) द्रष्टव्य है । (४) कुछ ऐसी भी पाण्डलिपियाँ मिलती है कि जिनमें संस्कत नाटक का अखण्ड/साद्यन्त पाठ नहीं होता है। परन्त संस्कतनाटक में बीच-बीच में जो प्राकत भाषामय संवाद होते हैं. उनका चयन करके उन वाक्यों का ही (केवल) संस्कृतछायानुवाद लिखा होता है। ऐसी पाण्डुलिपियों को "प्राकृतविवृति" या 'प्राकृतच्छाया' ऐसा विशेष नाम दिया जाता है। हम इन्हीं पाण्डुलिपियों को यथार्थ रूप में "संस्कृत नाटकों की प्राकृतपाण्डुलिपियाँ कह सकते है। (५) संस्कृत नाटकों की केवल टीका प्रस्तुत करनेवाली कुछ पाण्डुलिपियाँ ऐसी हैं कि जिसमें नाटक का मूल पाठ नहीं होता है, परन्तु नाटक की टीका ही लिखी होती है और ऐसी टीका में संस्कृत संवाद एवं श्लोकादि की व्याख्या करने के साथ-साथ, टीकाकार प्रत्येक प्राकृत संवाद का संस्कृत छायानुवाद भी देते हैं और आवश्यकतानुसार कदाचित् प्राकृतव्याकरण के सूत्र को उद्धृत करते हए ध्वनिपरिवर्तनों की चर्चा भी करते रहते हैं। उदाहरण के रूप में देवनागरी वाचनेवाले शाकुन्तल पर राघवभट्ट (राघवभट्ट, २००६) ने जो टीका लिखी है उसमें अनेक स्थानों पर, प्रासंगिक रूप से प्राकृतउक्तियों के संस्कृतछायानुवाद की चर्चा मिल रही है || षष्ठांक के आरंभ में धीवर-प्रसंग है, उसमें प्रयुक्त मागधी भाषा के लिये राघवभट्ट लिखते है कि - लाअकीए राजकीयं, अंगुलीएअ अङ्गलीयकं, शमाशादिए समासादितम् । मागधी राक्षसादेः स्यात् इति भरतोक्तेः । आदिग्रहणेन शकारधीवरदीनाम् अपि ग्रहणादत्रैषां मागध्युक्तिः । तत्र रसोर्लशौ इति सूत्रेण लो, रेफस्य दन्त्यस्य तालव्यः ॥ (पृ.१८२)
___ संस्कृत नाटकों की इन पाँच प्रकार की पाण्डुलिपिओं में से जो चतुर्थ क्रमांक पर "प्राकृतविवृति" का निर्देश है उसकी ही हम यथार्थ रूप में "संस्कृत नाटकों की प्राकृत पाण्डुलिपियाँ" कह सकते हैं। किन्तु तात्त्विक रूप से तो प्रथम क्रमांक की पाण्डुलिपियों को छोड़ के, अवशिष्ट चारों प्रकार की पाण्डुलिपियों को भी संस्कृत नाटकों की प्राकृत-पाण्डुलिपियाँ कहना होगा । क्योंकि इन सब में किस न किसी रूप में प्राकृत उक्तियों का संस्कृत-छायानुवाद तो दिया ही गया है | अलबत्ता, यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि प्राकृतविवृति या प्राकृतच्छाया को प्रस्तुत करनेवाली इन पाण्डुलिपियों के समुदाय में से कोई भी पाण्डुलिपि ऐसी नहीं मिलती है कि जिसमें दोनों भाषाओं के संवादों को, अर्थात् प्राकृतसंवाद एवं उनका संस्कृत-छायानुवाद साथ-साथ में दिया हो । जो भी पाण्डुलिपि "प्राकृतविवृति" या "प्राकृतछाया" के नाम से प्राप्त है उसमें प्राकृत संवादों को दिये बिना, केवल उनके संस्कृतछायानुवाद ही दिया गया है ।
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