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शाकुन्तल की प्राकृतविवृति एवं प्राकृतच्छायायें
वसन्तकुमार म. भट्ट
भूमिका – भरत मुनि से पहले, अर्थात् ईसा से भी पूर्वकाल में संस्कृत नाट्यसाहित्य का सर्जन होता था । भरत मुनि ने जो वैविध्यपूर्ण रूपकों का लक्षणविधान किया है, उससे यह सुनिश्चित रूप से सिद्ध होता है कि भरत मुनि के सामने तरह-तरह की नाट्यकृतियाँ मौजूद थी और जैसे भरत मुनि ने कहा है कि नाट्यवेद की रचना " सार्ववणिक" " हेतु से की गई है, इसलिये नाटकों में वाचिक पाठ्यांश के रूप में जो संवाद लिखे जाते थे वे संस्कृत एवं प्राकृत दोनों भाषाओं में होते थे । भरत मुनि ने कहा है कि दशविध संस्कृत रूपकों में समाज के सभी तरह के लोग होंगे एवं सभी तरह की भाषाओं का साथ-साथ में विनियोग किया जायेगा । भरत मुनि ने संस्कृत नाटकों में भाषा-विधान कैसे किया जाय उसका विस्तृत निरूपण नाट्यशास्त्र के १८वें अध्याय' में किया है । संस्कृत पाठ्यांश के साथ जो प्राकृत पाठ्यांश रखना है उसमें संस्कृत के तत्सम तद्भव एवं देशी शब्दों के निवेश करने की भी सूचना है। वहाँ संस्कृतभाषा की स्वर एवं व्यंजन ध्वनियाँ, तथा संयुक्ताक्षरों प्राकृत में कैसे परिवर्तित होते है (ना.शा. १८- ९ से २०) उसकी सूचना है । पात्रसृष्टि में किस पात्र के लिये कौन सी भाषा का विनियोग करना है (ना.शा. १८-३१ से ३३) वह भी लिखा है । तथा प्राचीन भारतवर्ष के विभिन्न प्रदेशों के अनुसार ७ भाषाओं का (ना.शा. १८-३४ से ३७) विकल्प भी प्रदर्शित किया है ( भरतमुनि, १९८०) । इस सन्दर्भ में, अभिज्ञानशाकुन्तल नाटक में जो प्राकृत भाषा का विनियोग हुआ है, उसका पाठ - सम्पादन कैसे किया जाय ? तथा अभिज्ञानशाकुन्तल नाटकी की जो (अप्रकाशित पाण्डुलिपिओं के रूप में) प्राकृतविवृतियाँ एवं प्राकृतच्छायायें प्राप्त हो रही हैं, वह उक्त कार्य में किस तरह से उपयोगी हो सकती हैं ? उसका अभ्यास प्रस्तुत करने का यहाँ उपक्रम रखा है
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१. संस्कृत नाटकों की प्राकृत पाण्डुलिपियाँ - देश-विदेश के संस्कृत ग्रन्थभण्डारों में जहाँजहाँ पर संस्कृत नाटकों की पाण्डुलिपियाँ संगृहीत की गई है उसका निदर्शात्मक अभ्यास करने से भी ज्ञात होता है कि (१) कुछ पाण्डुलिपिओं में संस्कृत नाटकों का केवल मूल पाठ ही है। जिसमें नाट्यकृति के संस्कृत एवं प्राकृत भाषा के संवादों को यथावत् स्वरूप में लिखे गये हैं । उदाहरण के रूप में "वाडी पार्श्वनाथ का जैन ज्ञानभण्डार", पाटण (गुजरात) की अभिज्ञानशाकुन्तल की पाण्डुलिपि (क्रमांक -१६९/६६५४) द्रष्टव्य है । तथा श्रीकैलाससागर सूरि ज्ञानमन्दिर, कोबा (गांधीनगर) से प्राप्त की गई
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