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________________ 118 सागरमल जैन SAMBODHI इन तेरह ग्रन्थों को छोड़कर शेष बत्तीस आगम तो स्थानकवासी और तेरापंथी भी मान रहे हैं । जहाँ तक अचेल धारा की दिगम्बर परम्परा का प्रश्न है जैसा कि हम पूर्व में सूचित कर चुके है, वह १२ अंग आगमों और १४ अंगबाह्य आगमों के नाम तो प्रायः वहीं मानती है, किन्तु उसकी मान्यता के अनुसार इन अंग और अंगबाह्य आगम ग्रन्थों की विषय वस्तु काफी कुछ विलुप्त ओर विदूषित हो चुकी है, अतः मूल आगम साहित्य का विच्छेद मानती है । उनके अनुसार चाहे आगम साहित्य का विच्छेद हो चुका है, उनके आधार पर रचित कसायपाहुड, छक्खण्डागम, मूलाचार, भगवती आराधना, तिलोयपण्णति आदि तथा आचार्य कुन्दकुन्द विरचित-समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकायसार, नियमसार, अष्टपाहुड आदि आगम तुल्य ग्रन्थों को ही वे आगम के स्थान पर स्वीकार करते हैं। जहाँ तक यापनीय परम्परा का प्रश्न है, वे १२ अंग आगमों और १४ अंग बाह्य आगमों को स्वीकार करते हैं। उनके अनुसार आगम पूर्णतः विलुप्त नहीं हुए, यद्यपि उनके ज्ञात आचार्यों की परम्परा का विच्छेद हुआ है। मूल के उनके द्वारा मान्य आगम श्वेताम्बर परम्परा द्वारा उसी नाम से आगमों से पूर्णतः भिन्न नहीं थे, उनकी अपराजितसूरि अपनी भगवती आराधना की टीका में उन आगमों से अनेक पाठ उद्धृत किये है। उनके द्वारा उद्धृत आगमों के पाठ आज भी शौरसेनी अर्धमागधी प्राकृत भेद एवं कुछ पाठान्तर के साथ आज भी श्वेताम्बरों द्वारा मान्य उस नाम वाले आगमों में मिल जाती है। दिगम्बर और यापनीय परम्परा में मूलभूत अन्तर यही है दिगम्बर परम्परा आगमों का पूर्व विच्छेद मानती है, जबकि यापनीय उनमें आये आंशिक पाठभेद को स्वीकार करके भी उनके अस्तित्व को नकारते नहीं हैं। वे उन आगम ग्रन्थों के आधार पर रचित कुछ आगम तुल्य ग्रन्थों को भी मान्य करती थी। इनमें कसायपाहुड, छक्कखण्डागम, भगवती आराधना, मूलाचार आदि उन्हें मान्य रहे थे । आज यह परम्परा विलुप्त है और इनके द्वारा रचित कुछ ग्रन्थ भी दिगम्बर परम्परा द्वारा मान्य किये जाते हैं। फिर भी इतना निश्चित है कि यापनीयों द्वारा मान्य आगम श्वेताम्बर परम्परा मान्य आगमों नितान्त भिन्न नहीं थे। अपराजितसूरि ने स्पष्टत: यह उल्लेख किया है कि उनके द्वारा मान्य आगम 'माथुरी वाचना' के थे। यह वाचना लगभग ईसा की तीसरी शताब्दी में स्कंदिल की अध्यक्षता में मथुरा में हुई थी। इस वाचना के समान्तर नागार्जुन की अध्यक्षता में वल्लभी में भी एक वाचना हुई थी । देवर्द्धिगणि में इस नागार्जुनीय वाचना के स्थान पर देवद्धिगणि की वाचना से बहुत भिन्न नहीं थे । स्कंदिल की इस माथुरी वाचना में ही आगम पाठों की भाषा पर शौरसेनी प्राकृत का प्रभाव आया होगा । आगम साहित्य की भाषा - जैनों के आगम की भाषा को सामान्यतया प्राकृत कहा जा सकता है, फिर भी यह ध्यान रखना आवश्यक है, कि जहाँ श्वेताम्बर आगम साहित्य की भाषा अर्धमागधी प्राकृत कही जाती है, वही दिगम्बर एवं यापनीय परम्परा द्वारा मान्य आगम तुल्य ग्रन्थों की भाषा शौरसेनी प्राकृत कही जाती है। किन्तु वर्तमान में उपलब्ध अर्धमागधी आगमों की भाषा पूर्णतः अर्धमागधी है और न दिगम्बर एवं यापनीय परम्परा द्वारा मान्य आगमतुल्य ग्रन्थों की भाषा मूलतः शौरसेनी हैं । श्वेताम्बर परम्परा द्वारा मान्य आगमों की भाषा पर क्वचित् रूप से इसिभासियाई में, अंशतः आचारांग में मिलता है, किन्तु इनकी चूर्णि में आये मूलपाठों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520786
Book TitleSambodhi 2013 Vol 36
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2013
Total Pages328
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size7 MB
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