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________________ 106 सागरमल जैन SAMBODHI वस्तुतः आगम विशेष या उसके अंश विशेष के रचनाकाल का निर्धारण एक जटिल समस्या है, इस सम्बन्ध में विषय-वस्तु सम्बन्धी विवरण, विचारों का विकासक्रम, भाषा-शैली आदि अनेक दृष्टियों से निर्णय करना होता है। उदाहरण के रूप में स्थानांग मे सात निह्नवों और नौ गणों का उल्लेख मिलता है जो कि वीरनिर्वाण सं. ६०९ अथवा उसके बाद अस्तित्व में आये, अतः विषय-वस्तु की दृष्टि से स्थानांग के रचनाकाल की अन्तिम सीमा वीरनिर्वाण सम्वत् ६०९ के पूर्व अर्थात् सन् की प्रथम शताब्दी का उत्तरार्ध या द्वितीय शताब्दी का पूर्वार्ध होती है। इसी प्रकार आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध की विषय-वस्तु एवं भाषा-शैली, आचारांग के रचनाकाल को आगम-साहित्य में सबसे प्राचीन सिद्ध करती है। आगम के कालनिर्धारण में इस सभी पक्षों पर विचार अपेक्षित है। इस प्रकार न तो हमारे कुछ दिगम्बर विद्वानों की यह समुचित है कि आगम देवद्धिगणि की वाचना के समय अर्थात् ईसा की पांचवी शताब्दी में अस्तित्व में आये और न कुछ श्वेताम्बर आचार्यों का यह कहना ही समुचित है कि सभी अंग आगम अपने वर्तमान स्वरूप में गणधरों की रचना है और उनमें किसी भी प्रकार का परिवर्तन, परिवर्धन, प्रक्षेप या विलोप नहीं हुआ है। किन्तु इतना निश्चित है कि कुछ प्रक्षेपों को छोड़कर आगम-साहित्य का प्राचीनतम ग्रन्थ कसायपाहुडसुत्त भी ईस्वी सन् की तीसरीचौथी शताब्दी से प्राचीन नहीं है। उसके पश्चात षट्खण्डागम, मूलाचार, भगवतीआराधना, तिलोयपण्णत्ति, पिण्डछेदशास्त्र और आवश्यक (प्रतिक्रमण) के अतिरिक्त इन सभी ग्रन्थों में गुणस्थान सिद्धान्त आदि की उपस्थिति से यह फलित होता है कि ये सभी ग्रन्थ पांचवी शती के पश्चात् के हैं । दिगम्बर आवश्यक (प्रतिक्रमण) एवं पिण्डछेदशास्त्र का आधार भी क्रमशः श्वेताम्बर मान्य आवश्यक और कल्प-व्यवहार, निशीथ आदि छेदसूत्र ही रहे हैं। उनके प्रतिक्रमण सूत्र में भी वर्तमान सूत्रकृतांग के तेईस एवं ज्ञाताधर्मकथा के उन्नीस अध्ययनों का विवरण है तथा पिण्डछेदशास्त्र में जीतकल्प के आधार पर प्रायश्चित्त देने का निर्देश है। ये यही सिद्ध करते हैं कि प्राकृत आगम साहित्य में अर्धमागधी आगम ही प्राचीनतम हैं चाहे उनकी अन्तिम वाचना पांचवी शती के उत्तरार्ध (ई.सन् ४५३) में ही सम्पन्न क्यों न हुई हो ? इस प्रकार जहाँ तक आगमों के रचनाकाल का प्रश्न है उस ई.पू. पांचवी शताब्दी से ईसा से पांचवी शताब्दी तक लगभग एक हजार वर्ष की सुदीर्घ अवधि में व्याप्त माना जा सकता है क्योंकि उपलब्ध आगमों में सभी एक काल की रचना नहीं है । आगमों के सन्दर्भ में और विशेष रूप से अंग आगमों के सम्बन्ध में परम्परागत मान्यता तो यही है कि वे गणधरों द्वारा रचित होने के कारण ई.पू. पांचवी शताब्दी की रचना है। किन्तु दूसरी ओर कुछ विद्वान उन्हें वलभी में संकलित एवं सम्पादित किये जाने के कारण ईसा की पांचवी शती की रचना मान लेते हैं। मेरी दृष्टि में ये दोनों ही मत समीचीन नहीं हैं । देवधि के संकलन, सम्पादन एवं ताडपत्रों पर लेखनकाल को उनका रचनाकाल नहीं माना जा सकता । अंग आगम तो प्राचीन ही हैं । ईसा पूर्व चौथी शती में पाटलीपुत्र की वाचना में जिन द्वादश अंगों की वाचना हुई थी, वे निश्चित रूप से उसके पूर्व ही बने होंगे। यह सत्य है कि आगमों में देवधि की वाचना के समय अथवा उसके बाद भी कुछ प्रक्षेप हुए हों, किन्तु उन प्रक्षेपों के आधार पर सभी अंग आगमों का रचनाकाल ई. सन् की पांचवी शताब्दी नहीं माना जा सकता । डॉ. हर्मन याकोबी ने यह निश्चित किया है कि आगमों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520786
Book TitleSambodhi 2013 Vol 36
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2013
Total Pages328
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size7 MB
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