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Vol. XXXVI, 2013
प्राकृत आगम साहित्य : एक विमर्श
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संदेह किया जाता है। किन्तु प्राचीन हस्तप्रतों के आधार पर पाठों के तुलनात्मक अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि अनेक प्राचीन हस्तप्रतों में आज भी उनका 'त' श्रुतिप्रधान अर्धमागधी स्वरूप सुरक्षित हैं। आचारांग के प्रकाशित संस्करणों के अध्ययन से भी यह स्पष्ट हो जाता है कि परवर्तीकाल में उसमें कितने पाठान्तर हो गये हैं। इस साहित्य पर जो महाराष्ट्री प्रभाव आ गया है वह लिपिकारों और टीकाकारों की अपनी भाषा के प्रभाव के कारण है। उदाहरण के रूप में सूत्रकृतांग का 'रामपुत्ते' पाठ चूर्णि में 'रामाउत्ते'
और शीलांग की टीका में 'रामगुत्ते' हो गये । अत: आगमों में, महाराष्ट्री प्राकृत के प्रभाव को देखकर उनकी प्राचीनता पर संदेह नहीं करना चाहिए । अपितु उन ग्रन्थों की विभिन्न प्रतों, एवं नियुक्ति, भाष्य, फ्रि और टीकाओं के आधार पर 'पाटों के प्राचीन स्वरूपों को सुरक्षित रखने का प्रयत्न करना चाहिए । वस्तुतः आगम-साहित्य में विभिन्न काल की सामग्री सुरक्षित है। इसकी उत्तर सीमा ई.पू. पांचवी चौथी शताब्दी और निम्न सीमा ई.सन् की पांचवी शताब्दी है । वस्तुत: आगम-साहित्य के विभिन्न ग्रन्थों का या उनके किसी अंश-विशेष का कालं निर्धारित करते समय उनमें उपलब्ध सांस्कृतिक सामग्री, दार्शनिकचिन्तन की स्पष्टता एवं गहनता, भाषा-शैली आदि सभी पक्षों पर प्रामाणिकता के साथ विचार करना चाहिए। इस दृष्टि से अध्ययन करने पर ही यह स्पष्ट बोध हो सकेगा कि आगम-साहित्य को कौन सा ग्रन्थ अथवा उसका कौन सा अंश-विशेष किस काल की रचना है ।
आगमों की विषय-वस्तु सम्बन्धी निर्देश श्वेताम्बर परम्परा में हमें स्थानांग, समवायांग, नन्दीसूत्र. नन्दीचूर्णि एवं तत्त्वार्थभाष्य में तथा दिगम्बर परम्परा में तत्त्वार्थ की टीकाओं के साथ-साथ धवला, जयधवला में मिलते हैं । तत्त्वार्थसूत्र की दिगम्बर परम्परा की टीकाओं और धवलादि में उनकी विषयवस्तु सम्बन्धी निर्देश मात्र अनुश्रुतिपरक हैं, वे ग्रन्थों के वास्तविक अध्ययन पर आधारित नहीं हैं। उनमें दिया गया विवरण तत्त्वार्थभाष्य एवं परम्परा से प्राप्त सूचनाओं पर आधारित है। जबकि श्वेताम्बर परम्परा में स्थानांग, समवायांग, नन्दी आदि आगमों और उनकी व्याख्याओं एवं टीकाओं में उनकी विषय-वस्तु
का जो विवरण है वर उन ग्रन्थों के अवलोकन पर आधारित है क्योंकि प्रथम तो इस परम्परा में आगमों • के अध्ययन-अध्यापन की परम्परा आज तक जीवित चली आ रही है। दूसरे, आगम-ग्रन्थों की विषय
वस्तु में कालक्रम से क्या परिवर्तन हुआ है, इसकी सूचना श्वेताम्बर परम्परा के उपर्युक्त आगम-ग्रन्थों से ही प्राप्त हो जाती है। इनके अध्ययन से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि किस काल में किस आगम ग्रन्थ में कौन सी सामग्री जुड़ी और अलग हुई है। आचारांग में आचारचूला और निशीथ के जुड़ने और पुनः निशीथ के अलग होने की घटना, समवायांग प्रश्नव्याकरण की विषय-वस्तु में हुआ सम्पूर्ण परिवर्तन, अन्तकृद्दशा, अनुत्तरौपपातिक एवं विपाक के अध्ययनों में हुए आंशिक परिवर्तन – इन सबकी प्रामाणिक जानकारी हमें उन विवरणों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन करने से मिल जाती है । इनमें प्रश्नव्याकरण की विषय-वस्तु का परिवर्तन ही ऐसा है, जिसके वर्तमान स्वरूप की सूचना केवल नन्दीचूर्णि (ईस्वी सन् सातवीं शती) में मिलती है। वर्तमान प्रश्नव्याकरण लगभम ईस्वी सन् की पांचवी-छठी शताब्दी में अस्तित्व में आया है । इस प्रकार आगम-साहित्य लगभग एक सहस्र वर्ष की सुदीर्घ अवधि में किस प्रकार निर्मित, परिवर्धित, परिवर्तित एवं सम्पादित होता रहा है इसकी सूचना भी स्वयं आगम-साहित्य और उसकी टीकाओं से मिल जाती है।
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