________________
अद्वैत वेदान्त एवं शुद्धाद्वैत में तत्त्वमीमांसा : एक दृष्टि
नमिता कपूर
वैष्णव वेदान्त के प्रमुख अन्तिम आचार्य श्री वल्लभाचार्य के दार्शनिक सिद्धान्त शुद्धाद्वैतवाद एवं अद्वैत वेदान्त के प्रणेता आचार्य शंकर के तत्त्वमीमांसीय सिद्धान्तों में समानताएँ एवं विषमताएँ दोनों ही परिलक्षित होती हैं । दार्शनिक सिद्धान्तों के अनुसार दोनों ही आचार्य अद्वैतवाद के समर्थक हैं । शंकराचार्य के अद्वैतवाद के अनुसार सजातीय - विजातीय भेद से रहित एवं दिग्देशगुणगतिफलभेद शून्य एवं एकरस ब्रह्म ही परमार्थ रूप से सत्य है । वल्लभाचार्य के शुद्धाद्वैत सिद्धान्त के अन्तर्गत भी माया सम्बन्ध से रहित शुद्ध ब्रह्म को ही अद्वैत तत्त्व के रूप में स्वीकार किया गया है । शंकराचार्य के अद्वैतवाद का पर ब्रह्म भी शुद्धाद्वैतवाद में प्रतिबिम्ब सम्बन्धी समानता भी द्रष्टव्य है । प्रतिबिम्बवाद के द्वारा दोनों ही आचार्य अद्वैतवाद का समर्थन करते हैं । शंकराचार्य के अनुसार जल में स्थित सूर्य का प्रतिबिम्ब जल की वृद्धि होने पर बढ़ता है, जल के क्षीण होने पर क्षीणता को प्राप्त होता है। जल के कम्पित होने पर कम्पित होता है तथा जल भेद होने पर भिन्नता को प्राप्त होता है, इस प्रकार सूर्य का प्रतिबिम्ब जल के धर्मों का अनुसरण करता है परन्तु परमार्थतः सूर्य वैसा नहीं है। इसी प्रकार ब्रह्म परमार्थत: अविकृत एवं एक होते हुए भी देहादि उपाधि के अतभाव से वृद्धि, क्षय आदि को प्राप्त होता हुआ प्रतीत होता है । अत: प्रतिबिम्बवाद के सिद्धान्त के अनुसार जीव प्रतिबिम्ब रूप है जिस प्रकार प्रतिबिम्ब वृद्धिक्षयादि को प्राप्त होता है उसी प्रकार जीव सुख-दुःखादि का अनुभव करता है, परमेश्वर वस्तुतः सुख-दुःखादि से असम्बद्ध है । वल्लभाचार्य ने सूर्य के स्थान पर चन्द्रमा के दृष्टान्त द्वारा प्रतिबिम्बवाद का उल्लेख किया है। उनके मतानुसार जिस प्रकार जल में चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब पड़ने पर जलवर्ती कम्पादि धर्म मिथ्या है उसका चन्द्रमा से कोई सम्बन्ध नहीं होता, उसी प्रकार अनात्म देहादि का जन्म, बन्ध, दुःखादि रूप धर्म जीव का है, ईश्वर का नहीं । अद्वैत वेदान्त में जगत् के मिथ्यात्व प्रतिपादन द्वारा पदार्थमय जगत् की शून्यता न सिद्ध करके जगत् के सम्बन्ध में उत्पन्न द्वैतबुद्धि का ही निराकरण किया गया है, यद्यपि शुद्धाद्वैतवादियों ने प्रपंच-बुद्धि का ही मिथ्यात्व सिद्ध किया है ।
. शांकर वेदान्त के प्रतिक्रिया से उत्पन्न होने के कारण अद्वैत वेदान्त एवं शुद्धाद्वैत में कुछ विषमताएँ भी परिलक्षित होती हैं । अद्वैत एवं शुद्धाद्वैत दोनों ही मतों में सर्वोच्च तत्त्व ब्रह्म को स्वीकार