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________________ Vol. XxxV, 2012 संस्कृत भाषा एवं साहित्य के क्षेत्र में जैन श्रमण परम्परा का अवदान 119 जैसे वैशेषिक सूत्र, सांख्यसूत्र, योगसूत्र, न्यायसूत्र, आदि । अतः उमास्वाति के लिए यह आवश्यक था कि वे जैन धर्म-दर्शन से संबधित विषयों को समाहित करते हुए सूत्र-शैली में संस्कृत भाषा में किसी ग्रन्थ की रचना करे । उमास्वाति के पश्चात्, सिद्धसेन, समन्तभद्र आदि ने भी जैन दर्शन पर संस्कृत भाषा में ग्रन्थ लिखे। सिद्धसेन दिवाकर ने भारतीय दार्शनिक धाराओं की अवधारणाओं की समीक्षा को लेकर कुछ द्वात्रिशिंकाओ की रचना संस्कृत भाषा में की थी। जिनमें न्यायवतार प्रमुख है। इसी प्रकार आचार्य समन्तभद्र ने भी आप्त-मीमांसा, युक्त्यानुशासन एवं स्वयम्भूस्तोत्र नामक ग्रन्थों की रचना संस्कृत भाषा में की । इस प्रकार ईसा की तीसरी-चौथी शताब्दी से जैन दार्शनिक साहित्य संस्कृत में लिखा जाने लगा। उमास्वाति ने स्वयं ही तत्त्वार्थसूत्र के साथ-साथ उसका स्वोपज्ञ भाष्य भी संस्कृत में लिखा था । लगभग ५वी शताब्दी के अन्त और ६वी शताब्दी में प्रारम्भ में दिगम्बराचार्य पूज्यपाद देवनन्दि ने तत्त्वार्थसूत्र पर 'सर्वार्थ-सिद्धि' नामक टीका संस्कृत में लिखी थी। इसके अतिरिक्त उन्होने जैन-साधना के सन्दर्भ में 'समाधि-तंत्र' और 'इष्टोपदेश' नामक ग्रन्थ भी संस्कृत भाषा में लिखे। इसी काल खण्ड में श्वेताम्बर परम्परा में मल्लवादी ने द्वादशारनयाचक्र की रचना संस्कृत भाषा में की जिसमें प्रमुख रूप से सभी भारतीय दार्शनिक परम्पराएँ पूर्व पक्ष के रूप में प्रस्तुत की गई और उन्हीं में से उनकी विरोधी धारा को उत्तरपक्ष के रूप में प्रस्तुत कर उनकी समीक्षा भी की गई। इसके पश्चात् ६टी शताब्दी के उत्तरार्द्ध में जिनभद्रगणि श्रमाश्रमण ने विशेषावश्यकभाष्य तो प्राकृत में लिखा, किन्तु उसकी स्वोपज्ञ टीका संस्कृत में लिखी थी। उनके पश्चात ७वी शती के प्रारम्भ में कोट्ट्याचार्य ने भी विशेषावश्यक भाष्य पर संस्कृत भाषा में टीका लिखी थी, जो प्राचीन भारतीय दार्शनिक मान्यताओं का गम्भीर विवेचन प्रस्तुत करती है, साथ ही उनकी समीक्षा भी करती है। लगभग ७वी शताब्दी में ही सिद्धसेन-गणि ने श्वेताम्बर परम्परा में तत्त्वार्थसूत्र की टीका भी लिखी थी। ८वी शताब्दी में प्रसिद्ध जैनाचार्य हरिभद्रसूरि हुए, जिन्होंने प्राकृत और संस्कृत दोनों ही भाषाओं में अपनी कलम चलाई । हरिभद्रसूरि ने जहाँ एक और अनेक जैनागमों पर संस्कृत में टीकाएँ लिखी, वही उन्होंने अनेक दार्शनिक ग्रन्थों का भी संस्कृत भाषा में प्रणयन किया। उनके द्वारा रचित निम्न दार्शनिक ग्रन्थ अधिक प्रसिद्ध है - षड्दर्शनसमुच्चय, शास्त्रवार्तासमुच्चय, अनेकान्तजयपताका, अनेकान्तवादप्रवेश, अन्कान्तप्रघट्ट आदि साथ ही उन्हों ने बौद्ध दार्शनिक दिड् नाग के न्यायप्रवेश की संस्कृत टीका भी लिखी। इसके अतिरिक्त उन्होंने 'योगदृष्टिसमुच्चय' आदि ग्रन्थ भी संस्कृत भाषा में लिखे । हरिभद्र के समकाल में या उनके कुछ पश्चात् दिगम्बर परम्परा में आचार्य अकलंक और विद्यानन्दसूरि हुए, उन्होंने अनेक दार्शनिक ग्रन्थों की रचना की। जहा अकलंक ने तत्त्वार्थसूत्र पर 'राजवतिक' टीका के साथ साथ न्याय-विनिश्चय, सिद्धि-विनिश्चय, लघीयस्त्री-अष्टशती एवं प्रमाण-संग्रह आदि दार्शनिक ग्रन्थों की संस्कृत में रचना की । वही विद्यानन्द ने भी तत्त्वार्थसूत्र पर श्लोकवातिकटीका के साथ साथ आप्त-परीक्षा, प्रमाण-परीक्षा, सत्यशासन-परीक्षा, अष्टसहस्त्री आदि गम्भीर दार्शनिक ग्रन्थों की संस्कृत भाषा में रचना की । १०वी शताब्दी के प्रारम्भ में सिद्धसेन के न्यायवतार पर श्वेताम्बराचार्य सिद्धऋषि ने विस्तृत टीका की रचना की थी। इसीकाल में प्रभाचन्द, कुमुदचन्द एवं वादिराजसूरि नामक दिगम्बर आचार्योंने क्रमशः प्रमेयकमलमार्तण्ड न्यायकुमुदचन्द, न्याय-विनिश्चय टीका आदि महत्वपूर्ण दार्शनिक ग्रन्थों की रचना की। इसके पश्चात ११वीं शताब्दी में देवसेन ने लघुनयचक्र, बृदह्नयचक्र, आलापपद्धति, माणिक्यनन्दी के परीक्षामुख तथा अनन्तवीर्य
SR No.520785
Book TitleSambodhi 2012 Vol 35
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJ B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2012
Total Pages224
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size37 MB
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