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SAMBODHI
गुर्जर नरेश राजा कुमारपाल ने सत्ता प्राप्त होते ही अहिंसा के प्रचार-प्रसार में कोई कभी नहीं होने दी। उसने समग्र राज्य में अमारी (अहिंसा) की घोषणा की। गुजरात की प्रजा में अहिंसा का बीजारोपण किया तथा इसका मूल बहुत ही गहराई तक पहुँचा। इसी कारण आज भी गुजरात की धरती अहिंसा के लिए समग्र विश्व में विख्यात है । इसके अतिरिक्त उसने अपने जीवन में जैन धर्म को स्वीकार कर परमार्हत् की उपाधि प्राप्त की। आचार्य हेमचंद्र ने इसी नरेश की प्रेरणा से योगशास्त्रादि कई ग्रंथो की रचना की। इससे कुमारपाल के गुणों की महत्ता स्थापित होती है। उसके जीवन एवं कर्तृव्य पर समकालीन एवं परवर्ती अनेक कर्ताओं, आचार्यों एवं कवियों ने अपने-अपने ग्रंथों में बड़ा ही सुन्दर चित्रण प्रस्तुत कर यशोगान किया है ।
सर्वप्रथम इन सभी कृतियों का संकलन मुनि जिनविजयजी ने किया था तथा इसे सिंघी जैन ग्रंथमाला ने १९५६ में प्रकाशित किया था । प्रकाशन के समय ही मुनिराज को अन्य हस्तलिखित प्रतियों की प्राप्ति हुई थी किन्तु उस जमाने में छपे हुए फर्मों में उपलब्ध अद्यतन प्राप्त सूचनाओं एवं पाठों को सम्मिलित करना संभव नहीं था । यह ग्रंथ अनुपलब्ध हो जाने पर इसका द्वितीय संस्करण डॉ. जितेन्द्र बी. शांह ने साध्वी श्री चंदनबाला म.सा. के सहयोग से तैयार किया है । इस प्रकाशन में मूल कृतियों को मुनि जिनविजयजी के प्रकाशन के बाद उपलब्ध हुए हस्तलिखित ग्रंथों के पाठों से मिलान कर समुचित पाठान्तरों को समाविष्ट कर संशुद्ध एवं संशोधित किया गया है ।
प्रस्तुत प्रकाशन में अग्रलिखित मूल कृतियों को संकलित किया गया है:
अज्ञात कर्ता द्वारा रचित कुमारपालदेव चरित : इस कृति की प्राचीनतम प्रत वि. सं. १३८५ (लगभग १३२८ (ईसवी सन् ) में लिखी हुई पाटण के ज्ञान भण्डार में सुरक्षित है । इस रचना में राजा कुमारपाल के राज्यप्राप्ति तक का वृत्तान्त उपलब्ध है किन्तु बाद का नहीं । इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि इस कृति की रचना राजा की हयाती में हुई होगी।
सोमतिलकसूरि कृत कुमारपालदेवचरित : वि.सं. १५१२ में लिखी हुई प्रत से ज्ञात होता हैं कि रुद्रपल्लीय गच्छ के आचार्य संघतिलकसूरि के शिष्य सोमतिलकसूरि ने इस कृति की रचना की । इस कृति में नागपुर के महामांडलिक कुमार के साथ कुमारपाल राजा के युद्ध का वर्णन है जो किसी अन्य कृति में नहीं मिलता । समग्र रुप में यह चरित्र व्यवस्थित एवं तथ्यपूर्ण प्रतीत होता है ।
कुमारपाल प्रबोध प्रबंध ( कुमारपाल प्रतिबोध प्रबंध ) : पूना से प्राप्त एक त्रूटित प्रति में प्रबोध के स्थान पर प्रतिबोध पाठ मिलता है । इस रचना की प्राप्त हस्तलिखित प्रति का लेखन वि.सं. १४६४ (ई.स. १४०७) में देवल पाटक ( काठियावाड़ के देलवाड़ा) में पण्डित दयावर्धन नामक यति के आदेश से उनके गच्छ के अनुयायियों को पढ़ाने हेतु किया गया था। बीकानेर से वि. सं. १६५६ में लिखी एक प्रति उपलब्ध हुई थी जो वाक्यरचना की दृष्टि से अधिक परिमार्जित होने के कारण आदर्श प्रतिलिपि की परम्परा से ज्ञात होती है । इसके पाठान्तर भी इस प्रकाशन में सम्मिलित कर लिए गये हैं । इस प्रबंध में चरित्रात्मक वर्णनों के अतिरिक्त उपदेशात्मक उद्धरणों का भी संग्रह है। इस कृति में कर्ता ने कुमारपाल के जीवन विषयक मुख्य-मुख्य घटनाओं का क्रमबद्ध वर्णन किया है । इस ग्रंथ को धार्मिक कथाग्रंथ का स्वरूप प्राप्त हुआ है ।
चतुरशीतप्रबन्ध के अन्तर्गत कुमारपालदेव प्रबंध : आचार्य राजशेखरसूरि के प्रबंधकोश नामक
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