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निम्बार्क के द्वैताद्वैत सिद्धान्त में कर्म की अवधारणा
रमानाथ पाण्डेय
प्रस्तुत पत्र वेदान्त दर्शन के प्रसिद्ध आचार्य निम्बार्क के द्वैताद्वैत सम्प्रदाय में प्रतिपादित कर्म सिद्धान्त की विवेचना प्रस्तुत करता है । द्वैताद्वैत सिद्धान्त के प्रमुख आचार्य निम्बार्क हैं । इसे द्वैताद्वैत इसीलिये कहा जाता है क्योंकि यह द्वैतवाद एवं अद्वैतवाद दोनों मतों के मध्य सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास करता है। ब्रह्म जीव तथा जड़ युक्त जगत से भिन्न भी है औ अभिन्न भी । इसीलिये इसे भेदाभेदवाद भी कहा गया है । इसके अनुसार जीव द्रष्टा, भोक्ता, कर्ता एवं श्रोता भी है, तथापि वह स्वतन्त्र नहीं है क्योंकि अपने ज्ञान, कर्म, मोक्ष तथा बन्धन सभी के लिये ईश्वर पर निर्भर है ।
जीव दो प्रकार के हैं - बद्ध एवं मुक्त । कर्म की व्याख्या इन्हीं दोनों के स्वरूप प्रतिपादन के प्रसंग में प्रस्तुत की गयी है। यद्यपि ईश्वर स्वयं सभी वस्तुओं की रचना करने में समर्थ है तथापि मात्र अपनी लीला के लिये वह प्रकृति एवं जीवों के कर्मों से उत्पन्न नियति की सहायता लेता है । यद्यपि ईश्वर मनुष्यों को अपनी इच्छानुसार कर्म करने देता है परन्तु उसका नियन्त्रण अनादि अदृष्ट के अनुसार होता है। वह जीवात्माओं के गुण कर्मानुसार सृष्टि तथा भोग और फल प्रदान करते हैं इसलिये उसे निमित्त कारण कहा गया है । द्वैताद्वैत में प्रतिपादित कर्मसिद्धान्त पतंजलि द्वारा प्रतिपादित कर्म की अवधारणा से इस अर्थ में भिन्न है कि पतंजलि तथा उनके अनुयायियों के अनुसार व्यक्ति अपने सुख-दुःख रूप कर्मों के फलों का भोग अपनी स्वतन्त्रता से भोगता है परन्तु यहाँ मनुष्य के कर्म ईश्वर द्वारा उनके पूर्व के शुभाशुभ कर्मों के अनुसार नियन्त्रित हैं जो अनादि हैं । इस प्रकार स्पष्ट है कि हमारे सामान्य जीवन में सुख-दुःख ही नहीं अपितु अच्छे बुरे कर्म करने की शक्ति भी हमारे पूर्व के कर्म द्वारा ईश्वर के नियन्त्रण से निश्चित है । जीवों का कर्तृत्व एवं सत्ता अन्ततः भगवान की इच्छा के अधीन है, वही उन्हें उनके कर्मानुसार सुख-दुःख देता है । भगवान् यद्यपि, लोगों को सुख व दुःख प्रदान करते हैं तथा उन्हें पापपुण्य के अनुसार ही कर्म करवाते हैं, तथापि वे अन्त में कर्म के बन्धन में नहीं हैं एवं वे अपनी कृपा द्वारा उन्हें कभी बन्धन से मुक्त करा सकते हैं । कर्मवाद एक यांत्रिक सिद्धान्त है जिसमें भगवान् अधिष्ठाता रूप से प्रत्येक प्रसंग में निर्णय देते हैं । वे इस रूप में कर्म सिद्धान्त के विधायक हैं, परन्तु उससे बंधे नहीं हैं । जीव असंख्य हैं तथा अणुरूप हैं । अणुरूप जीव, अनादि कर्म की मेखला से वेष्टित हैं जो उनके शरीर का कारण है, तथापि गुरु द्वारा शास्त्र वचन के श्रवण से वे संशय रहित हो भगवान् के सच्चे स्वरूप का गहन ध्यान कर कर्म के बंधन से मुक्त हो जाते हैं । भगवान् यद्यपि अपनी दया एवं कृपा