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सागरमल जैन
SAMBODHI
महाविद्याओं का उल्लेख है, किन्तु चौबीस शासनदेवता या यक्षियों के निर्देश परवर्ती जैन ग्रन्थों में ही उपल्बध हुए हैं, किन्तु अर्धमागधी आगम, उनकी नियुक्ति और भाष्य भी इस सम्बन्ध में मौन हैं। यह सब परवर्तीकालीन अर्थात् ईसा की सातवी शती के बाद ही है।
प्राचीन स्तर के जैन ग्रन्थ सूत्रकृतांग (२/२/१८) एवं ऋषिभाषित में विद्याओं के उल्लेख तो अवश्य हैं, किन्तु वहाँ वे मात्र विशिष्ट प्रकार की ज्ञानात्मक या क्रियात्मक योग्यताएँ, क्षमताएँ या शक्तियाँ ही हैं, जिनमें भाषाज्ञान से लेकर अन्तर्ध्यान होने तक की कलाएँ हैं, किन्तु कालान्तर में तांत्रिक प्रभाव के कारण जैनों में सोलह विद्यादेवियों, चौबीस यक्ष-यक्षियों, चौबीस कामदेवों, नव नारदों
और ग्यारह रुद्रों, अष्ट या नौ दिक्पालों, लोकान्तिक देवों, नवग्रह, क्षेत्रपाल, चौंसठ इन्द्रों और चौंसठ योगनियों की कल्पना भी आई, किन्तु उपरोक्त जैन देवमण्डल में भी सरस्वती का उल्लेख नहीं है। जैन धर्म में प्रारम्भ में जो सोलह महाविद्याएं मानी गई थीं, वे भी कालान्तर में चौबीस यक्षियों में सम्मिलित कर ली गई और यह मान लिया गया कि चौबीस तीर्थंकरों के शासन-रक्षक चौबीस यक्ष
और चौबीस यक्षणियाँ होती हैं, लेकिन आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि चौबीस शासन देवता या यक्षियों में भी कहीं भी सरस्वती एवं लक्ष्मी का उल्लेख नहीं है । यद्यपि प्राचीन काल से ही जैनों में ये दोनों देवियाँ प्रमुख रही हैं, क्योंकि सर्वप्रथम तीर्थंकरो की माताओं के सोलह या चौदह स्वप्नों में चौथे स्वप्न के रूप में श्रीदेवी या लक्ष्मी का उल्लेख मिलता है । किन्तु, उसके मूलपाठ में उसकी उपासना विधि की कहीं कोई चर्चा नहीं है । जहाँ तक सरस्वती का प्रश्न है, अर्धमागधी आगम साहित्य में भगवतीसूत्र के पन्द्रहवें शतक के प्रारम्भ में "नमो सुय देवयाए भगवइए" के रूप में श्रुतदेवी सरस्वती को नमस्कार करने का उल्लेख है। किन्तु भगवतीसूत्र के आद्य मंगल में यद्यपि 'नमो बंभीए लिवीए' कहकर ब्राह्मी लिपि का और 'नमो सुयस्स' कहकर श्रुत को नमस्कार किया गया है, किन्तु वहाँ श्रुतदेवता का उल्लेख नहीं है । भगवतीसूत्र के पन्द्रहवें शतक के प्रारम्भ में मध्यमंगल के रूप में, जो श्रुत. या श्रुतदेवता (सरस्वती) का उल्लेख है, उसे विद्वानों ने परवर्ती प्रक्षेप माना है, क्योंकि भगवतीसूत्र की वृत्ति में उसकी वृत्ति (टीका) नहीं है । भगवतीसूत्र का वर्तमान में उपलब्ध पाठ वल्लभी वाचना में ही सुनिश्चित हुआ है। यद्यपि भगवतीसूत्र के मूलपाठ में अनेक अंश प्राचीन स्तर के हैं, ऐसा भी विद्वानों, ने माना, किन्तु वल्लभीवाचना के समय उसके पाठ में परिवर्तन, प्रक्षेप
और विलोपन भी हुए हैं । अत: यह कहना कठिन है, कि भगवतीसूत्र में आद्यमंगल एवं मध्यमंगल के रूप में जो श्रुत या श्रुतदेवता को नमस्कार किया है वह प्राचीन ही होगा । भगवतीसूत्र के प्रारम्भ में आद्यमंगल के रूप में पंचपरमेष्ठि के पश्चात् 'नमो बंभीए लिवीए' और 'नमो सुयस्स' ये पाठ मिलते हैं । यहाँ ब्राह्मी लिपि और श्रुत को नमस्कार है, किन्तु श्रुतदेवता को नहीं है। अतः श्रुतदेवता की कल्पना कुछ परवर्ती है । संभवतः हिन्दू देवी सरस्वती की कल्पना के बाद ही सर्वप्रथम जैनों ने श्रुतदेवता के रूप में सरस्वती को मान्यता दी होगी ।
यद्यपि मथुरा से मिले पुरातात्विक साक्ष्य इसके विपरीत हैं, उनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि