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कमला गर्ग, रजनी पाण्डेय
SAMBODHI
कलावंतो, गुणीजनों, विद्वानों, चित्रकारों तथा कलाकारों को सवाई जयसिंहने अत्यधिक प्रोत्साहन दिया । १७७० ई. के एक ग्रन्थ 'बुद्धिषवलास' में जयसिंह के कला प्रेम का प्रमाण मिलता है । इस ग्रन्थ के रचियता जैन कवि बखतराम थे। यह ग्रन्थ सवाई जयसिंह की मृत्यु के २७ वर्ष बाद लिखा गया था । इसमें लिखा है कि महाराजा ने अनेक कलाकारों को सपरिवार बुलवाया और निवास के लिये भूखंड आवंटित किये ।१२ सवाई जयसिंह ने जयपुर दरबार के कारखानों की पुनः स्थापना की। जिसमें ३६ विभाग थे । इनमें गुणीजन खाना-संगीत तथा संगीतज्ञो का विभाग था । पोथीखाने में अमल्य ग्रन्थ धरोहरें रहती थीं। सरत खाने में चित्रकारों का स्थान था। सवाई जयसिंह के पश्चात सवाई ईश्वरी सिंह, माधोसिंह तथा पृथ्वी सिंह भी बड़े कला प्रिय तथा साहित्य प्रेमी शासक हुए।
जयपुर के कला व संस्कृति के पक्षधर नरेशों में दूसरा महत्त्वपूर्ण नाम सवाई प्रतापसिंह का है। ये स्वयं विद्वान, कवि, नर्तक तथा गायक थे। अतः इनके दरबार में कलावतों का ही प्रभुत्व था । प्रता सिंह के संरक्षण में स्थापत्य, काव्य तथा संगीत के समान चित्रण की रंगधारा भी समान रूप होती थी। सवाई जयसिंह ने जयपुर राजदरबार को जो बौद्धिक तथा कलात्मक आधार प्रदान किया, उस पर सावई प्रतापसिंह ने भारतीय कला संस्कृति को संवार कर उत्कृष्ट रूप में स्थापित किया।१३
सवाई प्रतापसिंह के उत्तराधिकारी जगत सिंह के दरबार में भी कवि, विद्वानों, शिल्पकारों तथा चित्रकारों को आश्रय प्राप्त होता था । रामसिंह द्वितीय संगीत साहित्य तथा कला प्रिय शासक के रूप में आये । ये स्वयं भी कुशल संगीतज्ञ थे । महाराज माधोसिंह तृतीय ने अपने पिता के समान ही दरबार में कला संरक्षण की परम्परा को जीवित शासक सवाई मानसिंह की मृत्योपरांत उसके आश्रितों को पेंशन देने का प्रावधान इन्होंने किया । जयपुर रियासत के अन्तिम शासक सवाई मानसिंह काव्य प्रेमी थे । दरबार में प्रति सप्ताह काव्य गोष्टियों का आयोजन किया जाता था। संगीतज्ञों को पूरा मान दिया जाता था ।
__ जयपुर नरेशों का इतिहास उनके संगीत, चित्रकला, साहित्य तथा वस्तुकला प्रेम का इतिहास है। जयपुर अपनी ललित कला तथा साहित्यिक परम्परा की सम्पन्न धरोहर अपने अतीत में संजोए हुए है। राजस्थान के किसी भी अन्य राजपूत राजवंश में ऐसी कला तथा संस्कृति प्रेम के ऐसे प्रमाण नहीं प्राप्त होते हैं । राजस्थान में कला परम्परा का प्रतिनिधित्व करने वाले कछवाहा वंशी ही थे । रियासती युग की भांति आज भी जयपुर राजस्थान में कला का आधारकेन्द्र है। जयपुर राजवंश का संगीत प्रेम
जयपुर आमेर के शासक संगीतप्रेमी रहे । संगीतप्रेमी शासकों की संरक्षण परम्परा और मूर्धन्य कलावंतो की कला साधना ने ही आज संगीत जगत में जयपुर का नाम उज्जवल किया है। राजस्थान के अन्य किसी राजपूत राजघराने में संगीत की ऐसी सुसम्पन्न तथा सुव्यवस्थित परम्परा दृष्टिगोचर नहीं होती है । जयपुर राजघराने में प्रारम्भ से ही संगीत आदि कलाओं को राजदरबार का महत्त्वपूर्ण भाग माना गया । कछवाहा राजवंश के सांगतिक रुझान का परिचय उनकी प्रारम्भिक राजधानी आमेर में ही प्राप्त होता है । आमेर नरेश भी संगीतप्रेमी रहे, किन्तु प्रारम्भिक प्रमाण अनुपलब्ध होने के कारण यह