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Vol. XXXII, 2009 काव्यप्रकाश-सङ्केतकार आचार्य माणिक्यचन्द्रसूरि के स्वरचित उदाहरण 93 नहीं होता । इससे विपरीत न्यायशाली राजा के अभाव में संग्रही जन विषण्ण हो जाता है, क्योंकि अन्यायपूर्ण व्यवस्था में बलवान् उसका धन हड़प लेते हैं । यहाँ द्वितीय व चतुर्थ चरण समान हैं । ___ लाटानुप्रास में पदों की असकृत् आवृत्ति के उदाहरण के रूप में सङ्केतकार अपना एक पद्य इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं -
सन्ति सन्तः किं न सन्ति सन्ति चेत्तनिवेद्यताम् ।
किं कुप्यन्ति न कुप्यन्ति ते कुप्यन्ति किमीदृशाः ॥ (पृ० २०३) क्या सन्तजन हैं या नहीं हैं, यदि हैं तो उन्हें पूछिए, क्या वे कुपित होते हैं अथवा नहीं । यदि कुपित होते हैं तो ऐसा क्या कोप हुआ ?
एक पद की असकृत् आवृत्ति वाले लाटानुप्रास का अपना उदाहरण सङ्केतकारने निम्न रूप में प्रस्तुत किया है
दुःखाभावः सुखं नेह सुखं यत्तन्न वा सुखम् । सुखं तत्परमार्थेन यद्विहाय सुखं सुखम् ॥
(पृ० २०३) ____ दुःख का अभाव सुख नहीं है, जो सुख दिख रहा है वह भी सुख नहीं है, वही सुख वास्तविक है, जिसको छोड़कर सुख वस्तुतः सुख बन जाता है ।
एक नामपद (प्रातिपदिक) की सकृत् व असकृत् आवृत्ति वाले लाटानुप्रास का स्वरचित उदाहरण सङ्केतकार इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं -
विश्वसृष्टिकरो विश्वपालको विश्वघातकः । विश्वज्ञो विश्वविख्यातो देवदेवः पुनातु वः ॥
(पृ० २०४) विश्व की रचना, पालना व संहार करनेवाला विश्वज्ञ विश्वविख्यात देवाधिदेव तुम्हें पवित्र करे।
यमक के प्रसङ्ग में सङ्केतकार का कथन है- 'तथा दन्त्यौष्ठ्यौष्ठ्यवकारबकारादिवर्णभेदे लघुप्रयत्नतरकृते च भेदे संयुक्तयोः सजातीययोर्वास्तवे विशेषे यमकबन्धो न विरुध्यते, लोकप्रतील्या तत्रापि श्रुतितुल्यत्वात्' । स्वं यथा
यथा नश्यन्ति विध्नानि यथा नश्यन्ति च द्विषः । तथा कुरु गुणालम्ब ! कृपालं वस्सदा मनः ॥
(पृ० २०५) हे गुणालम्ब ! तुम हमारे प्रति अपने मन को ऐसा कृपालु बनाओ, जिससे हमारे विध्न नष्ट हो जावें तथा हमारे शत्रु नष्ट हो जावें ।
'विघ्नानि' यह पाठदोष प्रतीत होता है, क्योंकि विघ्न शब्द पुल्लिंग में प्रयुक्त है । जैसा कि अमरकोष (३.२.१९) में कहा है- 'विघ्नेऽन्तराय: प्रत्यूहः' ।।
इसी प्रकार यमक के प्रसङ्ग में आगे कहते हैं - 'तथा नकारणकाराभ्यामस्वरमकारनकाराभ्यां विसर्गभावाभावाभ्यां च न विरोध इत्यन्ये' । स्वं यथा