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SAMBODHI
विजयपाल शास्त्री सीमानतिक्रमः कान्तिरिति दण्डी । सा चोपकारात्प्रशंसनाच्च ।' यहाँ प्रशंसन-विषयक अपना उदाहरण इस प्रकार प्रस्तुत किया है
तदास्यमनु भृङ्गाली गन्धलोभाद् भ्रमन्त्यभात् । ध्रुवं भुवं गतस्येन्दोमा॑न्त्या सेनेव तामसी ॥
(पृ० १९३) भ्रमरों की पंक्तियाँ उसके मुख की ओर गन्धलोभ से घूमती हुई ऐसे प्रतीत हो रही थीं, मानो पृथ्वी पर उतरे चाँद के पास तिमिरसेना घूम रही हो ।
वामनाभिमत अर्थगुण ओज के चार घटकों में से एक घटक है- 'वाक्यार्थ का व्यास' । सङ्केतकार इसका उदाहरणभूत अपना निम्न पद्य प्रस्तुत करते हैं -
सुखं क्वचित्क्वचिहुःखं सुखदुःखं क्वचित्पुनः । क्वचिन्न दुःखं न सुखमिति चित्रा भवस्थितिः ॥
(पृ० १९३) संसार में कही सुख है, कहीं दुःख है। कहीं सुख दुःख दोनों हैं, कहीं न दुःख है, न सुख है। इस प्रकार संसार की स्थिति विचित्र है।
वामन के मत में अर्थदृष्टि (नए अर्थ की सूझ) समाधि' नामक अर्थगुण है । इसका स्वरचित उदाहरण सङ्केतकारने इस प्रकार प्रस्तुत किया है
सर्वथा नष्टनैकट्यं विपदे वृत्तशालिनाम् । वारिहारिघटीपार्श्वे ताड्यते पश्य झल्लरी ॥
(पृ० १९४) अधिक निकटता वृत्तशाली (गोलाकार व चरित्र-सम्पन्न) के लिए सदा विपत्तिकारक ही होती है। देखो- वारिहारी की घटी (मटकी) के निकट झल्लरी (वाद्यविशेष) ताडित होता है । इस पद्य का अन्वय व भाव स्पष्ट नहीं हो पा रहा है।
(नवमोल्लासारम्भे) लोकोत्तरोऽयं सङ्केतः कोऽपि कोविदसत्तमाः । शब्दस्याडम्बरो यत्र भूषणत्वेन निश्चितः ॥
(पृ० १९९) हे उत्तम विद्वानों ! यह सङ्केत भी लोकोत्तर ही है, जिसमें शब्द का आडम्बर भी भूषणरूप बन गया है।
एक अन्य सुन्दर पद्य सङ्केतकारने 'पूज्यानामिदम्' कहकर लाटानुप्रास के उदाहरण के रूप में उद्धृत किया है । लगता है यह उनके गुरुजी का पद्य है
न्यायशालिनि भूपाले संग्रही नावसीदति ।
विपरीते पुनस्तत्र संग्रही नाऽवसीदति ॥ (पूज्यानामिदम्) ____ (पृ० २०३) न्यायशाली राजा के राज्य में संग्रही (धनसंग्रह) करनेवाला व्यक्ति दुःखी नहीं होता, क्योंकि चोरी-डाका न होने से उसका संगृहीत धन सुरक्षित रहता है। अतः उसके सामने विषाद का अवसर