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विजयपाल शास्त्री
SAMBODHI
दोषः नापि पोषः । न किञ्चिद्वा स्थाप्यते, तथापि न दोषः । 'तत्र अलङ्कारस्योत्थापने अन्यस्य च तादृशः स्थापने स्वोक्तं यथा'- ऐसा कहकर अपना निम्न पद्य प्रस्तुत करते हैं
सतामपि महाद्वेषः स्यादेकगुणजीविनाम् । वैमुख्यमेकमालायां यथा सुमनसां मिथः ॥
(पृ० १८८) एक गुणाश्रित सज्जनों का भी परस्पर महाद्वेष हो जाता है, जैसे एक गुण (सूत्र) पर आश्रित फूलों का वैमुख्य ही रहता है। यथा च- 'न किं सुमनसां मिथः' इति । शब्दालङ्कारस्योत्थापने एवमेव । स्वोक्तं यथा
दुष्टः सुतोऽपि निर्वास्यः स्वामिना नयगामिना । ग्रहपंक्तेर्ग्रहाधीशः शनिमन्ते न्यवीविशत् ॥
(पृ० १८८) यथा च 'विभुना नयशालिना' इति । एवम् अलङ्कारान्तरेष्वपि ज्ञेयम् । गुणानां तु नैषा युक्तिः । तत्रैव गुम्फे माधुर्यमुत्सार्य ओजोन्यासे दोषप्रसङ्गात् ।
नीतिमान् स्वामी द्वारा दुष्ट पुत्र को भी निर्वासित कर देना चाहिए । देखिए- ग्रहाधीश (सूर्य)ने (दुष्ट पुत्र) शनि को ग्रहपंक्ति में सबसे अन्त में भेज दिया ।
ओज गुण के प्रकरण में माणिक्यचन्द्र ने प्रसङ्गतः भरतमुनिकृत ओज गुण के लक्षण को नकारते हुए कहा है- 'विस्तारो विकासः । तद्रूपदीप्तिजनकमोजसो लक्षणं सत् । न तु हीनमवगीतं वा वस्तु शब्दार्थसम्पदा यदुत्कृष्यते तदोज इति भरतोक्तम् ।'
भरतमुनि के उक्त लक्षण के खण्डन के पीछे सङ्केतकार का तर्क यह है कि यदि हीन (अवगीत) वस्तु के शब्दार्थोत्कर्ष में ओज मानते हैं तो अहीन(अनवगीत) के अपकर्षण से होने वाले अनोज को भी गुण मानना पड़ेगा । ऐसा कहकर माणिक्यचन्द्र इन दोनों बातों के समावेश वाला स्वरचित उदाहरण इस प्रकार देते हैं
लघुभ्यो यादृशी कीर्तिर्महद्भ्यः स्यान्न तादृशी ।
अरण्यं समृगस्थानं नगरं कीटकाश्रितम् ॥ ___ (पृ० १९०) लघु वस्तुओं से जैसी कीर्ति मिलती है वैसी महान् वस्तुओं से नहीं मिलती, अरण्य मृगों से शोभित है तथा नगर कीटों (कृमिकीटों) से आश्रित है ।
___ 'मसृणत्वं श्लेषः' इस वामन-वचन व 'अशिथिलं श्लेषः' इस प्रकार के दण्डी के मन्तव्य के उदाहरण के रूप में सङ्केतकार अपना निम्न पद्य प्रस्तुत करते हैं -
अपकारिण्यपि प्रायः स्वच्छाः स्युरुपकारिणः । मारकेभ्योऽपि कल्याणं रसराजः प्रयच्छति ॥
(पृ० १९१) __अपकारे के प्रति भी उपकारी जन स्वच्छ (निष्कलुष)ही बने रहते हैं । रसराज (पारद) मारकों को भी कल्याण ही देता है । अर्थात् पारद का मारण करके जो औषध बनती है वह हितकारी ही होती