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Vol. XXXII, 2009
काव्यप्रकाश-सङ्केतकार आचार्य माणिक्यचन्द्रसूरि के स्वरचित उदाहरण
(पञ्चमोल्लासान्ते) सङ्केतगमने दत्तां मनः सुमनसां जनः । ध्वनिर्यत्र गुणीभूतः श्रोत्रानन्दी निरूपितः ॥
(पृ० ९६) ___ जिज्ञासु जन को चाहिए कि वह सुमना जनों (विद्वानों) के सङ्केतगमन में मन लगावे, जहाँ श्रोत्रानन्दी (श्रवण-रमणीय) गुणीभूत ध्वनि निरूपित किया है ।
(षष्ठोल्लासारम्भे) सङ्केतरीतिरेषैव ज्ञानश्रीभुक्तयेऽद्भुता । वर्णनाविषयीचक्रे यत्र वाणीगतध्वनिः ॥
(पृ० १२०) सङ्केत की यह रीति ही ज्ञानलक्ष्मी के उपभोग के लिए अद्भुत रीति है, जहाँ वाणीगत ध्वनि को वर्णना का विषय बनाया गया है।
(सप्तमोल्लासारम्भे) सङ्केतवर्त्मनाऽनेन सम्यग्घटनतत्पराः । नन्दयन्ति विदग्धानां मनांसि सुमनोगिरः ॥
(पृ० १२२) __ सङ्केत के इस मार्ग से अच्छी प्रकार संघटना-युक्त बुधजनों की वाणियाँ विदग्ध जनों के मन · को आनन्दित करती हैं।
(अष्टमोल्लासारम्भे) वाणी काव्यप्रकाशस्य गुणतत्त्वविवेकिनी । सङ्केतेनैव घटते यदि कस्यापि धीमतः ॥
(पृ० १८५) गुणतत्त्व का विवेचन करनेवाली काव्यप्रकाश की वाणी यदि किसी प्रतिभावान् को समझ में आती है तो सङ्केत की सहायता से ही ।
काव्यप्रकाश के अष्टम उल्लास के प्रारम्भ में मम्मट ने गुण और अलङ्कार का पृथक् पृथक् स्वरूप बताते हुए उनके स्वरूपगत भेद को स्पष्टतः प्रतिपादित किया है । इस स्थल पर मम्मट ने भामह के व्याख्याकार उद्भट के उस मतका खण्डन किया है जिसमें वे गुण व अलंकार, इन दोनों को समवायवृत्त्या काव्य में मानते हैं तथा इस दृष्टि से इनमें अभेद स्वीकार करते हैं।
यहाँ माणिक्यचन्द्र सूचना देते हैं कि ऐसा भट्टोद्भट ने भामहवृत्ति में कहा है । इसके साथ ही वे भामहवृत्ति का उद्धरण देते हुए कहते हैं -
'शब्दार्थालङ्काराणां गुणवत् समवायेन स्थितिः । गड्डरिकाप्रवाहेण तु गुणालङ्कारभेदोक्तिः ' इति भामहवृत्तौ भट्टोद्भटेन भणनम् असत्- इस विषय को स्पष्ट करते हुए सङ्केतकार आगे कहते हैं
तथाहि शृङ्गारादिरसे गुम्फे प्राच्यस्य अलङ्कारस्य उत्थापने अन्यस्य च स्थापने गुम्फस्य न