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विजयपाल शास्त्री
SAMBODHI
मिलान कर पाठशोधन किया गया । टीकाकार शिवदेशिक-शिष्य व वासुदेव
प्रथम खण्ड की टीका के रचियता शिवदेशिकशिष्यने टीका आरम्भ करते हुए मङ्गलाचरण के पहले दो श्लोकों में क्रमशः गणेश व सरस्वती की प्राथमिक अनिवार्य स्तुति करने के अनन्तर तृतीय श्लोक में अपने इष्टदेव कृष्ण की स्तुति की है
अष्टाभ्यश्शेवधिभ्यस्त्रवदमलमहारत्नसम्पूर्णकुम्भै
रष्टाभिस्स्त्रीभिराविर्मनसिजमशनैरादरेणाभिषिक्तम् । इष्टाभिर्गोभिरारादगणितकबलं वीक्षितं स्वर्णवर्णं दिष्टं में स्यादनिष्टप्रकरविहतये कृष्णनामाभिधेयम् ॥
___ (अर्जुनरावणीयम्, कैरलीटीकोपेम्- पृ० १.) इसके अनन्तर अन्य किसी देवता का स्मरण न कर चतुर्थ श्लोक में कवि ने अपने गुरु को प्रणाम किया है। इससे स्पष्ट है कि टीकाकार कृष्णभक्त हैं। उधर 'वासुदेवीय-टीका' के अन्त में भी टीकाकार वासुदेवने अपने को 'वासुदेवैकमना' कहते हुए कृष्णभक्ति प्रकट की है
वासुदेवैकमनसा वासुदेवेन निर्मिताम् ।
वासुदेवीयटीकां तां वासुदेव्यनुमोदताम् ॥ इससे यह सम्भावना बनती है कि कदाचित् वासुदेव कवि ही शिवदेशिक के शिष्य न हों, और उन्होंने ही पूर्वभाग की टीका भी रची हो, जो उपलब्ध हस्तलेख-ति ४. के चौदहवें सर्ग के मध्य भाग से आगे खण्डित हो गई।
एक सम्भावना यह भी है कि व्याकरणोदाहरणप्रधान काव्य 'वासुदेव-विजयम्' के रचियता वासुदेव कवि जो कालिकट के राजा जमूरिन के सभाकवि थे और जिनका काल पन्द्रहवीं से सोलहवीं शताब्दी के मध्य माना जाता है, वे ही 'वासुदेवीय-टीका' के रचियता हों और वे ही प्रथम खण्ड की टीका करने वाले सेव्यशिवदेशिक-शिष्य हों । व्याकरणोदाहरण-प्रदर्शन के क्षेत्र में वासुदेवकर्तृक ये दोनों कार्य रचयिता के अभिन्न होने की सम्भावना प्रकट करते हैं ।
उक्त सम्भावना की पुष्टि के लिए प्रमाण गवेषणीय है । जब तक प्रामाणिक रूप से इस की पुष्टि नहीं होती तब तक सेव्यशिवदेशिक-शिष्य वासुदेव ही हैं, यह कहना कठिन है । अतः अभी हम प्रथम खण्ड की टीका को 'शिवदेशिकशिष्य-टीका' व तृतीय खण्ड की टीका को 'वासुदेवीयटीका' नाम से व्यवहृत करेंगे । इसी प्रकार इन दोनों के मध्य वाले खण्ड की टीका को 'अज्ञातकर्तृका टीका' नाम से व्यवहृत करेंगे ।
प्रथम खण्ड की शिवदेशिकशिष्य-टीका व अन्तिम खण्ड की वासुदेवीय टीका के मध्यभाग की पूर्ति के लिए ली गई ति ६.८ मातृकागत टीका छठे सर्ग के अन्तिम भाग से २२वें सर्ग तक