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________________ Vol. XXXII, 2009 अनेकान्तवाद : सिद्धान्त और व्यवहार 105 जैन दृष्टि कथंचित् एकान्तवादी तथा कथंचित् अनेकान्तवादी है। यहां प्रमाण की दृष्टि से अनेकान्तवाद तथा नय की दृष्टि से एकान्तवाद को मान्यता प्रदान की गयी है। अनेकान्त दृष्टि का साकार रूप तभी उपलब्ध होगा जब दूसरों के सत्य को सहानुभूति से देखा जायेगा । मैत्री, करूणा, प्रमोद, माध्यस्थ, समत्व आदि अनेकान्त के स्तम्भ है। अनेकान्त वस्तुतः सत्य तथा अहिंसा की भूमिका पर प्रतिष्ठित जैन दर्शन का एक सार्वभौमिक सिद्धान्त है । जो सर्वधर्मसमभाव के चिन्तन से अनुप्राणित है । इसमें लोकसंग्रह, लोकहित तथा सर्वोदय की भावना निहित है । वैचारिक अहिंसा इसका विकसित रूप है । जिसके बिना हम अहिंसा की गहराई का स्पर्श नहीं कर सकते । वैयक्तिक एवम् सामुदायिक चेतना शान्ति की प्राप्ति के लिए सदैव से प्रयास करती रही है परन्तु उसकी जगह अशान्ति ही बढ़ती जा रही है । शान्ति वस्तुत: बाहर से प्राप्त करने वाली कोई वस्तु नहीं है, अपितु आन्तरिक समता, सहयोग, संयम एवम् समन्वय से उदभूत आनुभविक तत्त्व है, जो समाज के पारस्परिक व्यवहार को निर्मल, स्पष्ट व प्रेममयी बनाती है। छल, कपट आदि दुर्गुणों से भरे समाज में युद्धों, आक्रमणों और आतंकवादियों की आशाएं सजीव हो रही है । ऐसी स्थिति में मानसिक शान्ति एवम् संतुलन को धारण करने वाली मानवता अपनी समतामयी विचारधारा से अशान्त वातावरण को प्रशान्त करने में सक्षम प्रतीत होती है। अनेकान्तवाद इन सभी प्रकार की विषमताओं से संघर्षरत समाज को एक नयी दिशा प्रदान करता है । यह अनुशासन तथा सुव्यवस्था की सुस्थिर, मजबूत एवम् वैचारिक चेतना का आधार प्रस्तुत करता है । इससे आस्था एवम् ज्ञान की व्यवस्था में नवीन मार्ग प्रशस्त होता है, संघर्ष के स्वर बदल जाते है तथा समन्वय की मनोवृत्ति, समता की प्रतिध्वनि एवम् सत्यान्वेषण की चेतना गतिशील हो जाती है । आधुनिक विश्व के समस्त विरोधों के समाधान का आधार भी अनेकान्तवाद ही हो सकता है, जिसके आधार पर राजनीतिक, संघर्षो, सामाजिक विद्वेषों, धार्मिक मतभेदों, आर्थिक असमानता एवम् सांस्कृतिक विसंगतियों को दूर किया जा सकता है । समन्वयवादिता के आधार पर सर्वथा एकान्तवादियों को एक धरातल पर ससम्मान बैठाने का मूल इसमें निहित है। इससे राजनीतिक पवित्रता, सामाजिक सद्भाव, धार्मिक सहिष्णुता, आर्थिक समानता एवम् सांस्कृतिक सुसंगतियों के साथ इहलोक एवम् परलोक के लक्ष्यों को सिद्ध किया जा सकता है । दूसरों के दृष्टिकोण का अनादर करना और उसके अस्तित्व को अस्वीकार करना ही संघर्ष का मूल कारण है। संसार में जितने भी युद्ध हुए हैं उसके मूल में यही कारण विद्यमान रहा है । अतः अनेकान्तवादी दृष्टि से ही राष्ट्रीय एवम् अन्तर्राष्ट्रीय संघर्षों को दूर किया जा सकता है। ___अनेकान्तवाद के विपरीत एकान्तवाद की अवधारणा में निहित विचारों में 'ही' का प्रयोग किया जाता है जो दुराग्रह का प्रतीक है । एक दूसरे के विचारों का अनादर है । परन्तु अनेकान्तवादी अपनी विचाराभिव्यक्ति में 'भी' का प्रयोग करते हैं जो अहिंसा, समादरता, विनम्रता तथा लोकतंत्र का प्रतीक है । यह दृष्टि मनुष्य को दुराग्रही होने से बचाती है । 'ही' और 'भी' की विभेदक रेखा ने स्याद्वादी धर्म की तात्त्विकता को स्पष्ट किया है, जिसमें मानवीय एकता, सह अस्तित्व एवम् सर्वोदय की
SR No.520782
Book TitleSambodhi 2009 Vol 32
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJ B Shah, K M patel
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2009
Total Pages190
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size19 MB
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