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________________ 104 दीपक रंजन SAMBODHI अनित्य होते हैं । नित्य अंश के कारण वस्तु ध्रौव्य है तथा अनित्य अंश के कारण उत्पत्ति विनाशशील है । यहाँ द्रव्य का दूसरा लक्षण गुण पर्याय से युक्त माना गया है । अर्थात् द्रव्य वह है जिसके गुण और पर्याय हो । वस्तु के स्वरूप एवम् गुण नित्य हैं, परन्तु पर्याय बदलते रहते हैं। पर्याय अर्थात् वस्तु में होने वाले परिवर्तन का आधार । पर्यायों की दृष्टि से भी वस्तु अनन्त धर्मात्मक है । प्रत्येक वस्तु में पर्यायों के दृष्टि से भी दो प्रकार के धर्म होते हैं । एक भावात्मक अर्थात् स्वपर्याय तथा दूसरा अभावात्मक अर्थात् परपर्याय । उदाहरण के लिए रंग, रूप, गोत्र, कुल आदि यदि किसी व्यक्ति का भावात्मक धर्म है तो अन्य वस्तुओं से उसके भेद करने के लिए उसमें अभावात्मक धर्म भी होते हैं। यदि मनुष्य के विषय में पूरा ज्ञान प्राप्त करना है तो हमें यह जानना होगा कि वह अन्य सभी वस्तुओं से किस प्रकार भिन्न है। अभावात्मक धर्मो की संख्या भावात्मक धर्मो की संख्या से बहुत ही अधिक होती है। क्योंकि अन्य सभी वस्तुओं से जो भेद होते हैं, वे ही अभावात्मक धर्म कहे जाते हैं । ___ इस तरह जैन दर्शन में द्रव्य के नित्य एवम् आगन्तुक अथवा परिवर्तनशील धर्मों के आधार पर उसके स्वरूप को समझने का प्रयास किया गया है तथा इसी अर्थ में प्रत्येक वस्तु-सत्ता को अनन्त धर्मों वाला माना गया है । तत्त्व की यह दृष्टि सत्ता या द्रव्य के स्वरूप को बहु आयामी बना देती है। इसीलिए जैन दर्शन में बौद्ध दर्शन के क्षणभंगवाद तथा अद्वैतवेदान्त के नित्यवाद को एकांगी माना गया है। बौद्ध दर्शन किसी भी वस्तु की सत्ता को एक क्षण से अधिक विद्यमान नहीं मानता, उसके लिए परिवर्तन ही सत्य है । अद्वैत वेदान्त में परिवर्तन को माया मानते हुए केवल ब्रह्म को नित्य एवम् सत् रूप में स्वीकार किया गया है । इस रूप में जैन दृष्टि में दोनों दर्शनों में एकान्तवाद का दोष पाया जाता है । यथार्थतः उनके मत में नित्यता एवम् परिवर्तन दोनों सत्य है । एक दृष्टि में जगत् की नित्यता सत्य है और दूसरी दृष्टि में उसका परिवर्तन भी सत्य है। अनेकान्तवाद के ज्ञान में एकान्तवादी विचारों के विरोध को समाप्त करने का तथ्य परिलक्षित होता है तथा सापेक्षिक सत्य की पुष्टि होती है। ___ अनेकान्तमयी वस्तु का कथन करने की पद्धति स्याद्वाद है । पदार्थ के अनन्त धर्मो का सम्यक् विवेचन करने में स्याद्वाद सहायता प्रदान करता है । इस रूप में स्याद्वाद अनेकान्तवाद को प्रमाणित करता है । 'स्याद्' शब्द के बिना अनेकान्त का प्रकाशन सम्भव नहीं है । स्याद्वाद एक चिन्तन प्रक्रिया है जिसका एक वैज्ञानिक, सांस्कृतिक तथा आध्यात्मिक आयाम है। उसका महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि यह प्रत्येक वस्तु की यथार्थता को सापेक्षता में ढूंढता है । अतः एक ही वस्तु के सम्बन्ध में उत्पन्न हुए विभिन्न दृष्टिकोणों का समन्वय स्याद्वाद के माध्यम से किया जा सकता है । इस रूप में जैन दर्शन की अनेकान्त दृष्टि से समस्त विरोधों का परिहार सम्भव होता है। जिससे विभिन्न दृष्टिकोणों से चिन्तन करते हुए वस्तु के विभिन्न स्वरूपों में समन्वय भी स्थापित किया जाता है । वस्तुतः अनेकान्तवाद वस्तु के विराट स्वरूप को जानने का वह प्रकार है जिसमें मुख्य धर्म को स्वीकार कर अन्य धर्मों का निषेध नहीं किया जाता है, अपितु उसे गौड़ रूप से स्वीकार कर पूरी वस्तुस्थिति को जानने का प्रयास किया जाता है । अनेकान्तवाद को सदैव अनेकान्तवादी मानने पर वह भी एकान्तवाद हो जाएगा । अतः अनेकान्त में भी अनेकान्त को स्वीकार किया गया है। इस रूप में
SR No.520782
Book TitleSambodhi 2009 Vol 32
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJ B Shah, K M patel
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2009
Total Pages190
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size19 MB
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