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उदयप्रभुसूरिने सु० की० क० में
विभूति वि० भट्ट
'श्री मालवेन्द्र सुभटेन ३ सुवर्ण कुम्भानुत्तारितान् पुनरपि क्षितिपाल मंत्री ।
श्री वैद्यनाथ सुरसद्वानि दर्भवत्यामेकविंशतिमपि प्रसभं व्यधत्त ॥ १७५ ॥ है |
SAMBODHI
इन संदर्भों से स्पष्ट प्रतीत होता है कि सोमेश्वरदेव के परं मित्र - मंत्रीने वैद्यनाथ प्रासाद के शिखर पर जो करीब २१ सुवर्णकुम्भों फिरसे प्रतिष्ठित करवाये और अपनी तथा प्रासाद की महिमा बढायी । और उनके मृत्यु बाद गुर्जरेश्वर वीसलदेवने भी इस वैद्यनाथ प्रासाद का जीर्णोद्धार करवा के यही प्रासाद के साथ संबंधित अधिकारीवर्ग को उसकी देखभाल करने का सौंप दिया। उसकी महिमा बढाने के लिये अपने परं मित्र वस्तुपाल के अवसानबाद करीब १४-१५ साल के बाद सं० १३११ में अण० पा० का गुर्जरेश्वर वीसलादेव के इस भव्य कार्य की स्मृति में सोमेश्वरने इस शिलालेख में प्रशस्ति निर्माण की । उससे कविने गुजरात की, मंत्रीकी और अपनी शान और महत्ता बढायी । लेकिन इस प्रासाद के शिखर के शिखर पर वस्तुपाल के सुवर्णकुंभ पुनर्स्थापन कार्य के साथ इस वैद्यनाथ प्रासाद जीर्णोद्धार प्रशस्ति का आनुपूर्वी सिवा कोई संबंध नहीं है यह उसमें की आंतरिक घटना के निरूपण से स्पष्ट पता चलता है । इस प्रशस्ति में मंत्री युगल, लवण० वीर० के मृत्यु बाद की और कवि के अपने जमाने तक की ऐतिहासिक महत्त्वपूर्ण घटनाओं का प्रौढ संस्कृत शैली में निदर्शन किया है ।
यहाँ प्रारंभ के मंगलाचरण के तीन खंडित श्लोकों में से प्रतीत होता है कि " अष्टाभिस्तनुभिः..." अष्टमूर्ति श्री वैद्यनाथ महादेव की स्तुति है । उसके संदर्भ में सोमेश्वरने "स्पष्टं धूर्जटिमूर्तयः कृतपदाः श्री वस्तुपाल ! त्वयि” (गि० शि० ले० ३।८. ४०1३, पृ० ५१) अर्थात् शिव की अष्टमूर्ति के गुणोंने वस्तुपाल में आश्रय लिया । यह याद आता है ।
धवल के पुत्र होते हुए भी कृष्णराजने (कृष्ण का) अनुकरण करके अपने राज्य को निष्कंटक किया ।
श्लोक ४ से चौलुक्य की अन्य शाखा वाघेला वंश की वंशावली का परिचय देने से पहले का जीर्णभाग में चौलुक्य वंश का पहला राजा का उल्लेख हो सकता है क्योंकि जिस राजा को गुर्जरराज्य लक्ष्मीने स्वयं अपना वरण किया था । यहाँ जैसा ही मूलराज का परिचय सोमेश्वरनें 'कीर्तिकौमुदी' में भी दिया है (की० कौ० २।२) ।
वाघेला वंश का आदि पुरुष अर्णोराजने गुर्जरेश्वर कुमारपाल को युद्ध में बहुत संगीन मदद की थी उसकी कद्र करने के लिये कुमारपाल ने अर्णोराज को भीमपल्ली गाँव भेट में दिया था । लवणप्रसाद के पिता अर्णोराज के पराक्रमों (श्लोक ६ - ११ ) विस्तृत रोचकता पूर्ण वर्णित हुवे हैं । अर्णोराजने रावण जैसा पराक्रमी रणसिंह को राणांगण में पराजित किया । यह रणसिंह और इस युद्ध के बारे में सोमेश्वरने अपनी की० कौ० में भी बताया है (२ । ६६) सर्वप्रथम यह बात सोमेश्वरने ही यहाँ बतायी है, जो अन्यत्र किसीने नही दी है । इसकी चर्चा अनेक इतिहासकारोंने की है । यह रणसिंह के युद्ध के बारे में, रणसिंह के लिये मतभेद है । शायद वह मेवाड का गुहिलवंश का रणसिंह हो सकता है। जो भीमदेव का विश्वासु
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