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राजस्थान की लोक चित्रकला
तनूजा सिंह
लोक कलाओं के अध्ययन विषय पर ध्यान कुछ ऐसी परम्पराओं की ओर जाता है जो कि अनपढ़ कृषक तथा ग्रामीण लोगों में मौखिक रूप से चलती थीं और इन परम्पराओं में एक ओर मानव सभ्यता के विकास का इतिहास छिपा हुआ था तो दूसरी ओर अत्यन्त भावुक और सरल कलात्मकता थी। इसीलिए ये परम्परायें जहाँ एक ओर आकर्षण का विषय बनीं वहीं दूसरी ओर कलाविदों ने भी इनमें रुचि लेना आरम्भ कर दिया। इसके साथ ही मौखिक परम्परा में चले आये हुये गीतों का अध्ययन भी आरम्भ हुआ । इस अध्ययन के समय ही विद्वानों का ध्यान उन कलाकृतियों की ओर गया जो इस मौखिक साहित्य से जुडी हुई थी और तब यह माना जाने लगा कि लोगों में एक ऐसी चित्र शैली भी प्रचलित है जिसे लोक कला कहा जा सकता है ।
_ 'लोक' शब्द का अर्थ एक स्थान पर रहनेवाले मानव समूह से और 'लोक कला' का अर्थ उस समूह की परम्परागत् कला से लगाया है किन्तु देखा गया है कि इसका सम्बन्ध किसानों की कला से है, अतः'लोक' शब्द का अर्थ कृषक समुदाय से ही लिया जाता है। हिन्दी में 'लोक' शब्द का प्रयोग होता है। कुछ विद्वानों के मतानुसार लोक शब्द का अर्थ जनपद अथवा ग्राम नहीं है बल्कि नगरों और ग्रामों में फैली हुई वह समूची जनता है जिसके व्यवहारिक ज्ञान का आधार पोथियाँ नहीं हैं तथा अन्य विद्वानों के अनुसार लोक कला जनसामान्य विशेषतः ग्रामीणजनों की सामूहिक अनुभूति की अभिव्यक्ति है। अन्य विद्वानों के निष्कर्ष यही हैं कि पुस्तकीय ज्ञान से भिन्न व्यावहारिक ज्ञान पर आधारित सामान्य जनसमुदाय की अभिव्यक्ति ही लोक कला है।
लोक कला की उत्पत्ति के सम्बन्ध में विचार किया जाय तो इसकी उत्पत्ति आदिमकाल से हुई है । प्रागैतिहासिक मनुष्य अपनी आदिम अवस्था में जिस समय खेती करने लगा, उसकी कलाओं में स्थिरता आयी । उसी समय उसमें 'लोक भावना' का जन्म हुआ। फिर भी यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि लोक कला के उत्पन्न होते ही आदिम कला समाप्त हो गयी । बहुत समय तक आदिम कला और लोक कला साथ-साथ चलती रहीं । उस समय की कलाकृतियों में दोनों शैलियों का मिश्रित रूप भी दिखाई देता है। फिर भी इस कला की उत्पत्ति कई वर्षों पूर्व की मानी जाती है |
लोक कला की उत्पत्ति धार्मिक भावनाओं, अन्ध विश्वासों, भय निवारण, अलंकरण प्रवृत्ति तथा जातिगत भावनाओं की रक्षा के विचार से हुई । यों तो आदिम सभ्यता में भी अनेक देवी देवता थे और