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________________ Vol. XXVIII, 2005 आचार्य नेमिचन्द्रसूरि कृत.... 113 शिष्य का विनीत और मेधावी होना, गुरु का सकल कलाओं में पारंगत होना, और अभिभावक का अनुशासन रहना आवश्यक था । रत्नचूड ने इसीलिए शीघ्र समस्त क्रियाएँ सीख ली थीं । शिक्षा के उस समय कौन-कौन से विषय थे यह तो रत्नचूड से अधिक स्पष्ट नहीं होता किन्तु इतना ज्ञात अवश्य होता है कि उस समय शब्द-लक्षण (व्याकरण), गणित, न्याय (आत्म-प्रमाण), छन्द, अलंकार, काव्य, नाटक, सट्टक आदि शिक्षा के विषयों में सम्मिलित थे । प्राचीन जैन-साहित्य में शिक्षा सम्बन्धी विस्तृत विवरण प्राप्त होता है। कुवलयमाला में भी शिक्षा के सम्बन्ध में पर्याप्त जानकारी उपलब्ध है । जिसका विवेचन विद्वानों ने किया है । ___ रत्नचूड में विभिन्न प्रसंगों में कई विद्याओं का उल्लेख हुआ है । यथा - १. स्तम्भिनीविद्या (१५)-६-इस विद्या द्वारा किसी भी असामाजिक-तत्त्व को अनुचित कार्य करते हुए देखकर स्तम्भित कर दिया जाता था ।" २. आकाशगामिनीविद्या (२०)-५.. (५०)-४-विद्याधरों द्वारा इस विद्या को सिद्ध किया जाता था इसे खेचरी-विद्या भी कहते हैं । ३. बहुरूपिणी-विद्या (३३)-१-धूमकेतु-यक्ष द्वारा रत्नचूड को बहुरूपिणी विद्या प्रदान की गयी थी। इस विद्या के द्वारा व्यक्ति आवश्यकतानुसार कई रूप बना सकता था । प्राचीन ग्रन्थों में इस विद्या के बहुत उल्लेख हैं। ४. सत्य-आदर्श-विद्या (५८)-रत्नचूड में इस विद्या का उल्लेख राजहंसी के विवाह के प्रसंग में हुआ है। राजहंसी के वर की जानकारी के लिए सूर्यकान्त पुरोहित ने आदर्श-विद्या की स्थापना की तथा धारणा के द्वारा मन्त्र का उच्चारण किया, उससे शीसे में चार अक्षर रा, भ, र, म उभर आये । उन अक्षरों की पूर्ति द्वारा ही राजहंसी का विवाह सम्पन्न हो सका । व्यवहार-भाष्य में अन्य विद्याओं ..के साथ आदर्श विद्या का भी उल्लेख है। ५. क्षीरासव लब्धि (५)-१-यह लब्धि गौतम स्वामी को प्राप्त थी । इससे वाणी दूध के समान मधुर हो जाती थी। ६. अक्षरपदानुसार लब्धि (५७)-३-इस लब्धि के द्वारा रत्नचूड ने रा, भ, र, म अक्षरों की पूर्ति करके राजहंसी से विवाह किया था । ७. वक्रीयक लब्धि (७१)-४-इसके द्वारा इच्छानुसार शरीर को परिवर्तित किया जा सकता था । ८. वेतालिनी विद्या (५०)-५-इस विद्या के द्वारा अचेतन वस्तु भी चेतन की भांति कार्य करने लगती थी। इन विद्याओं के अतिरिक्त ग्रन्थ में कई मन्त्र-तन्त्र के भी उल्लेख प्राप्त हैं । राजश्री के द्वारा रत्नचूड को अनेक दिव्य विद्याएँ एवं मन्त्र प्रदान किये गये थे ॥६५॥-१. गारूढ़ मन्त्र के द्वारा सर्प को वश में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520778
Book TitleSambodhi 2005 Vol 28
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah, K M Patel
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2005
Total Pages188
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size4 MB
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