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________________ जयपाल विद्यालंकार सहस्त्रों महिलाओं से भरे हुए तुम्हारे हृदय में स्थान न पाती हुई मेरी सखी काम-काज छोड़कर क्षीण अपनी काया को और भी क्षीण कर रही है। ग्रामीण जीवन के इसी भाव का एक और चित्र देखिए । किसान की मुग्धा पुत्रवधू को एक रंगीन साड़ी मिली है । उसका उल्लास इतना असीम है कि गाँव के चौड़े रास्ते में भी वह तन्वी समा नहीं पा रही है । भाषा यदि अपनी हो, उसमें बनावटीपन न उसका सीधा सम्बन्ध वक्ता के हृदय के साथ होता है । वक्ता की मानसिकता के साथ इस अपनी सहज भाषा के समीकरण का एक सुन्दर उदाहरण देखिये 106 कत्तो खेमं कत्तो जो सो खुज्जंबओ घरद्दारे । तस्स किर मत्थओवरी को वि अणत्थो समुप्पणो ॥६४॥ प्रोषितभर्तृका से पड़ोसिन ने कुशल-क्षेम पूछा । उसका बुझे मन से सहज भाव से निकला उत्तर उसकी टीस की स्वाभाविक अभिव्यक्ति है । अरी ! कहाँ, कैसा कुशल-क्षेम यह जो दरवाज़े पर बोना आम का पेड़ है उसके ऊपर कोई अनर्थ पैदा हो गया है। इशारा आम्र मंजरी की ओर है। निर्वेद का अतिशय दिखाने के लिए कत्तो पद की द्विरुक्ति ने इस गाथा में जान डाल दी है । ग्राम्य बालाओं का पथिकों को आमन्त्रण तथा उनसे छेड़-छाड़ इन गाथाओं में बहुलता से मिलती है। महाराष्ट्र का बहुत सा हिस्सा पथरीला पठार है। सफर पर निकले पथिक को ही विदग्धा के साभिलाष आमन्त्रण ने आकर्षित नहीं किया, प्रायः सभी काव्यशास्त्र के आचार्य भी इस पद्य से अभिव्यंजित वस्तु- ध्वनि से आकर्षित हुए बिना न रह सके । पंथअ ण एत्थ संथरमत्थि मणं पत्थरत्थले गा । उपण पओहरे पेक्खिऊण जड़ वससि ता वससु ॥ ७६ ॥ Jain Education International हे पथिक इस पथरीले गाँव में तनिक सा भी पुआल का बिछौना तो मिलेगा नहीं (यहाँ कोई शास्त्र-व्यवस्था नहीं है) हाँ उमड़ते मेघों को देखकर यदि रुकना चाहो तो रुको । उण्णअ पओहरे उन्नतपयोधरान् (उन्नतमेघान् उन्नतस्तनौ च ) में श्लेष का चमत्कार आज तक आचार्यों को आकृष्ट करता रहा है । विदग्धा हालिक-वधू किस सफाई से घर के बुजुर्गों को वाच्यार्थ से तिरोहित करके पथिक को ध्वन्यर्थ से आमन्त्रित करती है। यह हुई संध्या समय में आये पथिक की बात । शिखर दोपहरी में राह चलते पथिक के प्रति आमन्त्रण भी कम चातुर्य युक्त नहीं है - - थोअं पी ण णीइ इमा मज्झण्हे उअ सिसिरअल लग्गा । अव भएण छाहा वि ता पहिअ किं ण वीसमसि ||२२|| SAMBODHI भयंकर गरमी के भय से छाया भी अपनी ठण्डी जगह को छोड़कर थोड़ा भी इधर-उधर नहीं खिसकती । हे पथिक तुम भी क्षण भर विश्राम क्यों नहीं कर लेते। ग्राम्य विदग्धा ने बड़ी चतुराई से पथिक को इंगित कर दिया यह निर्जन प्रदेश है, यहाँ कोई आता-जाता नहीं तनिक रुक कर जाओ बटोही । रात में सराय में ठहरे किसी पथिक को चतुर ग्राम्य-वधू गृहजनों की आँख में धूल झोंक कर किस चतुराई से आमन्त्रित कर रही है - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520778
Book TitleSambodhi 2005 Vol 28
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah, K M Patel
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2005
Total Pages188
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size4 MB
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