SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 106
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जयपाल विद्यालंकार तथा राजा के गुरु राजशेखर का इन प्रश्नों को उपस्थित करके उत्तर देने की आवश्यकता समझना यह दिखाता है कि उस समय में प्राकृत भाषा में रचना करना गौरवशाली नहीं माना जाता था । भरतमुनि से लेकर धनञ्जय तक किसी आचार्य ने, नाटिका के भेद सट्टक में भी केवल प्राकृत में रचना का विधान नहीं किया है । इस स्थिति में राजशेखर एक अभिनव प्रयोग करना चाहते थे तथा परम्परा को तोड़ना चाहते थे । संस्कृत नाटकों में प्राकृत का विधान शास्त्र सम्मत है । उत्तम तथा मध्यम श्रेणी के पुरुषों की भाषा, नाटकों में संस्कृत होनी चाहिये । परन्तु इसी श्रेणी की स्त्रियों की भाषा शौरसेनी हो । किन्तु गाथा छन्द में इन्हीं की भाषा महाराष्ट्री प्राकृत होती है । रनवास में रहनेवाले सेवकों की भाषा मागधी होती है। चे, राजकुमार और सेठ लोग अर्धमागधी बोलते हैं । विदूषक प्राच्या (गौडदेशीय प्राकृत) तथा धूर्त लोग अवन्तिजा भाषा बोलते हैं । वीर, योद्धा, नागरिक तथा जुआरियों की भाषा ( दाक्षिणात्या) वैदर्भी होती है। शबर और शकादि की उक्तियों में शाबरी भाषा का प्रयोग होता है । उत्तरदेश के निवासियों की भाषा बाह्लीक और द्रविड देश के निवासियों की भाषा द्राविडी होती है । आहीरों की आभीरी, चाण्डालों की चाण्डली, नौकर रख कर जीविका चलानेवाले मल्लाह आदि की भाषा आभीरी अथवा शाबरी होती है। लुहारादि पैशाची बोलें । उत्तम या मध्यम दासियाँ शौरसेनी बोलें । बालकों, नपुंसकों, ग्रह-नक्षत्रों का विचार करने वालों, उन्मत्तों एवं आतुर पुरुषों की भाषा भी शौरसेनी होती है । ऐश्वर्य में मस्त या दरिद्र तथा जो भिक्षुक या तापस हैं उनकी भाषा भी प्राकृत होनी चाहिये । इस प्रसंग की समाप्ति करते हुए शास्त्रकार कहते हैं कि जो पात्र जिस देश का हो उसकी वही भाषा होनी चाहिये । चौदहवीं शताब्दी आचार्य विश्वनाथ ने साहित्यदर्पण में संस्कृत नाटकों में प्रयुक्त भाषा का यह विस्तृत विवरण दिया है। (सा. दर्पण ६, १५९१६९) । भाषा प्रयोग की यह सारी व्यवस्था उस समय में उपलब्ध संस्कृत नाटकों में प्रयुक्त भाषा के आधार पर की गई है । इस प्रसंग को विस्तार से उद्धृत करने का प्रयोजन यह दर्शाना है कि संस्कृत का दृश्य काव्य - साहित्य यद्यपि प्राकृत भाषा से ओतप्रोत है, वस्तुतः अधिकतर पात्र प्राकृत ही बोलते हैं, परंतु फिर भी प्राकृत भाषा में रचना को हेय तथा निम्नस्तर की समझना, तत्कालीन भद्र समाज के दम्भ का सूचक है । शिष्टजन - समाज के इसी पाखण्ड के विरुद्ध राजशेखर ने आवाज उठाई और कर्पूरमञ्जरी सट्टक की रचना नाट्याचार्यों के सिद्धान्त ग्रन्थों के नियमों को नकार कर शौरसेनी प्राकृत में की। इस रचना के पीछे राजशेखर की विदुषी पत्नी अवन्तिसुन्दरी का आग्रह भी उपर्युक्त कारणों से अवश्य रहा होगा । इस नाटिका का प्रथम मंचन अवन्तिसुन्दरी के निर्देशन में ही हुआ प्रतीत होता है । यह प्रयोग सफल तो रहा ही राजा महेन्द्रपाल तथा अन्य राजकीय पुरुषों की उपस्थिति से इसकी गरिमा भी निश्चय ही बढ़ी होगी । 100 संस्कृत नाटकों में प्राकृत भाषा का प्रयोग तत्कालीन भद्रसमाज की प्राकृत के प्रति उदारता न होकर लाचारी थी । दृश्यकाव्य की सार्थकता उसके अभिमञ्चन में है । प्रस्तुति में ढेर सारे अभिनेताओं को एक मंच पर लाकर साधना (शिक्षित करना) सरल काम नहीं है। तथाकथित भद्रसमाज राजा जैसे उच्च पात्र तो दे सकता था । इन भद्रजनों की दृष्टि में जो अधम और छोटे पात्र थे उन्हें जुटाने के लिये समाज के इसी तथाकथित निम्न वर्ग का मुखापेक्षी होना लाचारी थी । प्रायः समाज को चित्रित करनेवाले सभी नाटकों में इस वर्ग के पात्रों की भरमार होना स्वाभाविक है । इस वर्ग के पात्र संस्कृत के विद्वान् Jain Education International SAMBODHI For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520778
Book TitleSambodhi 2005 Vol 28
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah, K M Patel
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2005
Total Pages188
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy