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________________ उत्तराध्ययनसूत्र में प्रतिपादित कर्म-मीमांसा कमलकुमार जैन उत्तराध्ययन अर्धमागधी आगमसाहित्य में मूलसूत्र के नाम से प्रसिद्ध है । वैदिक परंपरा में जो स्थान गीता और बौद्ध परंपरा में जो स्थान धम्मपद का है, वही स्थान श्वेतांबर जैन परंपरा में उत्तराध्ययन का है। उत्तराध्ययन के अध्ययनों की विषयवस्तु ई. पू. ६०० से ई. ४००, लगभग एक हजार वर्ष की धार्मिक व दार्शनिक विचारधारा का प्रतिनिधित्व करता है । इस ग्रंथ में कथा–दृष्टांत, उपदेश और आचरणात्मक विषयों का विवेचन हुआ है । यह कर्मसिद्धांत का ग्रंथ न होते हुए भी इसके आचारात्मक और संवादात्मक अध्ययनों में कर्मसिद्धान्त का विवेचन हुआ है। कर्मसिद्धान्त : साधक के आत्मविकास में जिन कारणों से बाधा उत्पन्न होती है, उसे जिन-शासन में कर्म कहा जाता है । भारतीय दर्शनों में 'कर्म' शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त किया गया है । वैयाकरणों के अनुसार कर्ता को जो इष्ट होता है, वह कर्म है । मीमांसक यज्ञ इत्यादि क्रियाकाण्ड को कर्म कहते हैं । वैशेषिकों के अनुसार-'जो एक ही द्रव्य में समवाय से रहता है, जो गुणरहित तथा संयोग व विभाग कारणांतर की अपेक्षा नहीं रखता, वह कर्म है' (एक द्रव्यमगुणं संयोगविभागेष्वनपेक्षकारणमिति कर्मलक्षणम्) -सांख्य दर्शन में संसार के अर्थ में कर्म शब्द का प्रयोग किया गया है। गीता में क्रियाशीलता को कर्म कहा गया है, 'योगः कर्मसु कौशलम्'। महाभारत में आत्मा को बांधनेवाली शक्ति को कर्म कहा गया और शान्ति पर्व २४०-७में कहा है कि, प्राणी कर्म के द्वारा बद्ध होता है तथा विद्या के द्वारा मक्त होता है। बौद्ध साहित्य में कहा गया है कि, प्राणियों में विविधता के कारण कर्मों में विविधता दिखाई देती है। अंगुत्तरनिकाय में सम्राट मिलिंद के प्रश्न का उत्तर देते हुए भिक्षु नागसेन कहते हैं,-'हे राजन् ! कर्मो की विविधता के कारण सभी मनुष्य कभी भी एक समान नहीं होंगे। क्योंकि मनुष्यों का अस्तित्व ही कर्मों पर आधारित है। सभी प्राणी कर्मों के उत्तराधिकारी होते हैं । कर्मानुसार ही वे विविध योनियों में जन्म लेते हैं । कर्म ही अपना बन्धु है । कर्माशय ही जीवों का उच्च व नीच विभाग करता है । पातंजलयोगसूत्रानुसार क्लेशमूल कर्माशयवासना है । यह कर्माशय इह लोक में और परलोक में अनुभव में आता है : क्लेशमूलः कर्माशयः दृष्टादृष्टजन्मवेदनीयः ।
SR No.520777
Book TitleSambodhi 2004 Vol 27
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJ B Shah, N M Kansara
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2004
Total Pages212
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size25 MB
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