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Vol. XXVII, 2004
प्राचीन जैनागमों में चार्वाकदर्शन का प्रस्तुतिकरण एवं समीक्षा
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सव्वुक्कल :
. सर्वोत्कूल सर्वदा अभाव से ही सबकी उत्पत्ति बताते थे। ऐसा कोई भी तत्त्व नहीं है जो सर्वथा सर्व प्रकार से सर्वकाल से रहता हो, इस प्रकार ये सर्वोच्छेदवाद की संस्थापना करते थे । दूसरे शब्दों मे जो लोग समस्त सृष्टि के पीछे किसी नित्य तत्त्व को स्वीकार नहीं करते थे और अभाव से ही सृष्टि की उत्पत्ति मानते थे। वे कहते थे कि कोई भी तत्त्व ऐसा नहीं है जो सर्वथा और सर्वकालों में अस्तित्व रखता हो । संसार के मूल में किसी भी सत्ता को अस्वीकार करने के कारण ये सर्वोच्छेदवादी कहलाते थे । सम्भवतः यह बौद्ध ग्रन्थों में सूचित उच्छेदवादी दृष्टि का कोई प्राचीनतम रूप था जो तार्किकता से युक्त होकर बौद्धों के शून्यवाद के रूप में विकसित हुआ होगा।
... इस प्रकार ऋषिभाषित में आत्मा, पुनर्जन्म, धर्म-व्यवस्था एवं कर्मसिद्धान्त के अपलापक विचारकों का जो चित्रण उपलब्ध होता है उसे संक्षेप में इस प्रकार रखा जा सकता है१. ग्रन्थकार उपर्युक्त विचारकों को "उक्कल" नाम से अभिहित करता है जिसके संस्कृत रूप उत्कल,
उत्कुल अथवा उत्कूल होते हैं। जिनके अर्थ होते हैं बहिष्कृत या मर्यादा का उलंघन करने वाला।
इन विचारकों के संबंध में इस नाम का अन्यत्र कहीं प्रयोग हुआ है ऐसा हमें ज्ञात नहीं होता । २. इसमें इन विचारकों के पाँच वर्ग बताये गये हैं-दण्डोत्कल, रज्जूत्कल, स्तेनोत्कल, देशोत्कल और
सर्वोत्कल । विशेषता यह है कि इसमें स्कन्धवादियों (बौद्ध स्कन्धवाद का पूर्व रूप) सर्वोच्छेदवादियों (बौद्ध शून्यवाद का पूर्व रूप) और आत्म-अकर्तावादियों (अक्रियावादियों-सांख्य और वेदांत का पूर्व रूप) को भी इसी वर्ग में सम्मिलित किया गया हैं। क्योंकि ये सभी तार्किक रूप से कर्मसिद्धान्त एवं धर्मव्यवस्था के अपलापक सिद्ध होते हैं । यद्यपि आत्म-अकर्तावादियों को देशोत्कल
कहा गया है अर्थात् आंशिक रूप से अपलापक कहा गया हैं। ३. इसमें शरीरपर्यन्त आत्म-पर्याय मानने का, जो सिद्धान्त प्रस्तुत किया गया है, वही जैनों द्वारा आत्मा ।
को देहपरिमाण मानने के सिद्धान्त का पूर्व रूप प्रतीत होता हैं । क्योंकि इस ग्रन्थ में शरीरात्मवाद का निराकरण करते समय इस कथन को स्वपक्ष में भी प्रस्तुत किया गया है । इस प्रकार इसमें जैन, बौद्ध और सांख्य तथा औपनिषदिक वेदांत की दार्शनिक मान्यताओं के पूर्व रूप या बीज परिलक्षित होते हैं । कहीं ऐसा तो नहीं है कि इन मान्यताओं के सुसंगत बनाने के प्रयास में ही
इन दर्शनों का उदय हुआ है । ४. इसमें जो देहात्मवाद का निराकरण किया गया है वह ठोस तार्किक आधारों पर स्थित नहीं हैं । मात्र
यह कह दिया गया है कि जीव का जीवन शरीर की उत्पत्ति और विनाश की कालसीमा तक सीमित नहीं है। इससे यह फलित होता है कि कुछ विचारक जीवन को देहाश्रित मानकर भी देहान्तर की सम्भावना अर्थात् पुनर्जन्म की सम्भावना को स्वीकार करते थे। ऋषिभाषित में उत्कटवादियों (चार्वाकों) से सम्बन्धित अध्ययन के अंत में कहा गया हैएवं से सिद्धे बुद्धे विरते विपावे दन्ते दविए अलं ताइ. णो पुणरवि इच्चत्थं हव्वमागच्छति त्तिबेमि ।