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________________ SAMBODHI 66 - सागरमल जैन प्रतिपादन करता है वह उक्कूल है चूँकि चार्वाक मर्यादाओं को अस्वीकार करते थे अतः उन्हें उत्कूल कहा गया होगा । अब हम इन उक्कलों के पाँच प्रकारों की चर्चा करेंगेदण्डोक्कल : . ये विचारक दण्ड के दृष्टांत द्वारा यह प्रतिपादित करते थे कि जिस प्रकार दण्ड अपने आदि, मध्य और अन्तिम भाग से पृथक् होकर दण्ड संज्ञा को प्राप्त नही होता है, उसी प्रकार शरीर से भिन्न होकर जीव, जीव नहीं होता हैं । अतः शरीर के नाश हो जाने पर भव अर्थात् जन्म-परम्परा का भी नाश हो जाता हैं। उनके अनुसार सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त होकर जीव जीवन को प्राप्त होता हैं । वस्तुतः शरीर और जीवन की अपृथक्ता या सामुदायिकता ही इन विचारकों की मूलभूत दार्शनिक मान्यता थी । दण्डोक्कल देहात्मवादी थे। रज्जूक्कल : . रजूक्कलवादी यह मानते है कि जिस प्रकार रज्जु तन्तुओं का स्कन्ध मात्र है उसी प्रकार जीवन भी पंचमहाभूतों का स्कन्ध मात्र है। उन स्कन्धों के विच्छिन्न होने पर भव-सन्तति का भी विच्छेद हो जाता है । वस्तुतः ये विचारक पंचमहाभूतों के समूह को ही जगत् का मूल तत्त्व मानते थे और जीव को . स्वतंत्र के रूप में स्वीकार नहीं करते थे । रज्जूक्कल स्कन्धवादी थे। स्तेनोक्कल : ऋषिभाषित के अनुसार स्तेनोक्कल भौतिकवादी अन्य शास्त्रों के दृष्टान्तों को लेकर उनकी स्वपक्ष में उद्भावना करके यह मानते थे कि हमारा भी यही कथन हैं । इस प्रकार ये दूसरों के सिद्धान्तों का उच्छेद करते हैं । परपक्ष के दृष्टान्तों का स्वपक्ष में प्रयोग का तात्पर्य सम्भवतः वाद-विवाद में 'छल' का प्रयोग हो । सम्भवत: स्तेनोक्कल या तो नैयायिकों का कोई पूर्व रूप रहे हों या संजयवेलट्ठी पुत्र के सिद्धान्त का यह प्राचीन कोई विधायक रूप था, जो सम्भवत आगे चलकर अनेकान्तवाद का आधार बना हो । ज्ञातव्य है कि ऋषिभाषित में देहात्मवादियों के तर्को से मुक्ति की प्रक्रिया का प्रतिपादन किया हैं। देशोकल : ___ऋषिभाषित में जो आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध करके भी जीव को अकर्ता मानते थे, उन्हें देशोक्कल कहा गया है । आत्मा को अकर्ता मानने पर पुण्य-पाप, बन्धन-मोक्ष की व्यवस्था नहीं बन पाती हैं। इसलिए इस प्रकार के विचारकों को भी आंशिक रूप से उच्छेदवादी ही कहा गया है, क्योंकि पुण्यपाप, बन्धन-मोक्ष आदि का निरसन करने के कारण ये भी कर्मसिद्धान्त, नैतिकता एवं धर्म के अपलापक ही थे । अत: इन्हें भी इसी वर्ग में समाहित किया गया था। सम्भवतः ऋषिभाषित ही एक ऐसा ग्रन्थ है जो आत्म अकर्तावादियों को उच्छेदवादी कहता है। वस्तुतः ये सांख्य और औपनिषदिक वेदान्त के ही पूर्व रूप थे । जैन उन्हें उत्कूल या उच्छेदवादी इसलिए मानते थे कि इन मान्यताओं से लोकवाद (लोक की यथार्थता), कर्मवाद (कर्मसिद्धान्त) और आत्मकर्तावाद (क्रियावाद) का खण्डन होता था ।
SR No.520777
Book TitleSambodhi 2004 Vol 27
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJ B Shah, N M Kansara
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2004
Total Pages212
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size25 MB
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