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________________ Vol. xxVII, 2004 बौद्ध प्रवज्या-उपसम्पदा :.... 103 सम्मंत्रणा की जाती । संघ के सामने कहा जाता कि अमुक भिक्षु अमुक उपाध्याय के पास उपसंपदा लेना चाहता है, अगर संघ आज्ञा दे तो वह उपस्थित किया जाय । संघ की आज्ञा मिलने पर वह संघ के सामने आकर कहता - "संघ मेरा पापपूर्ण संसार से उद्धार करे।" फिर अनुशासन होता । अनुशासन के बाद यदि वह ठीक से उत्तर दे सकता तो उसे उपसंपदा दी जाती थी। शिक्षा देने के लिए अधिक सख्त नियम बनाए गए । जो कम से कम दस साल तक भिक्षु न रहा हो वह उपाध्याय नहीं बन सकता था । उपाध्याय प्रव्रज्या देता था और विनय के सिद्धांतों की शिक्षा देता था । लेकिन उपाध्याय धूतांग, ध्यान आदि के लिए चला जाता था और अपने सद्धिविहारिक को अच्छी तरह से शिक्षा नहीं दे सकता था । अतः बुद्धने आचार्य बनाने की अनुमति दी । भिक्षु अपने उपाध्याय के पास सतत रहता और शिक्षा के लिए आचार्य के पास जाता । आचार्य का कार्य मात्र शिक्षा देना और उपाध्याय के अनुपस्थिति में दोनों का कार्य करने का था। आचार्य अन्तेवासी को निश्रय सम्पत्ति दरमियान - जो सामान्यतः दस साल का समय रहता - शिक्षा देता। आचार्य सद्धिविहारिक भी रख सकता था । आचार्य अन्तेवासी का सम्बन्ध भी उपाध्याय सद्धिविहारिक जैसा ही रहता । उपाध्याय और आचार्य द्वारा शिक्षा पद्धति से विहार एक स्थानिक विश्वविद्यालय जैसा हुआ । आधुनिक विश्वविद्यालय और विहारविद्यालय का एक मात्र तफावत यह था कि विहार-विद्यालय के सभी विद्यार्थी संघ के सभ्य याने भिक्षु ही होते थे । उपाध्याय के चले जाने से, गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने से, मृत्यु से या दूसरे संप्रदाय में चले जाने से उपाध्याय के साथ निश्रय सम्पत्ति का अंत हो जाता था । जब उपाध्याय और आचार्य एक ही व्यक्ति हो जाता तब उपाध्याय-निश्रय संपत्ति रहती और आचार्य-निश्रय सम्पत्ति का अंत हो जाता था। उपाध्याय द्वारा प्रव्रज्या, भिक्षु की विनति से उपाध्याय और आचार्य की निश्रय सम्पत्ति, और संघ द्वारा अत्तिचतुकम्म से उपसंपदा देने की पद्धति निश्चित हुई । निश्रय सम्पत्ति की अवधि समर्थ भिक्षु के लिए दस के स्थान पर पाँच साल की गई। असमर्थ के लिए तो जीवन पर्यंत निश्रय रखना पडता था । जब भिक्षु परदेश में विहार करता हो, वह बीमार हो या बीमार की शुश्रुषा करता हो, जंगल में सुखपूर्वक रहता हो, तब निश्रय सम्पत्ति का अंत हो जाता । परिवास (Probation) : अन्य पंथ का परिव्राजक यदि प्रवर्जित होना चाहता है तो उसे परिवास दिया जाता। उसकी विधि उपसंपदा जैसी ही थी किन्तु उपसम्पदा के स्थान पर परिवास शब्द का प्रयोग करके ज्ञप्ति, अनुश्रावण और धारणा के माध्यम से परिवास दिया जाता । चार मास तक यदि उसका व्यवहार उचित रहता तो बाद में संघ उसे उपरोक्त विधि से उपसंपदा देता । उसके पास चीवर न होने पर उपाध्याय उसका प्रबन्ध करता । श्रामणेर की प्रव्रज्या : राहुल कुमार की प्रव्रज्या के बाद मातापिता की अनुमति प्राप्त करना आवश्यक माना गया । अब
SR No.520777
Book TitleSambodhi 2004 Vol 27
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJ B Shah, N M Kansara
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2004
Total Pages212
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size25 MB
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