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पुराण, सर्ग और सृष्टि-विकास
सुनीता कुमारी
पुराण-वणित नव सर्ग - पुराणों में विषय की उत्पत्ति के विषय में अनेक प्रकार के मत मिलते हैं, जैसे कहीं प्रकृति और पुरुष के संयोग से इस ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति मान ली गई है तो उसी क्षण पुराणकार ने अण्ड से विश्व को सृष्ट मान लिया है। कहीं परम पिता ब्रह्मा को अपने द्वारा रचित स्त्री के साथ संयोग कराकर सृष्टि-प्रक्रिया को समझाने का प्रयत्न किया गया है तो किसी समय ब्रह्मा के पुत्र द्वारा सृष्टि-कर्म को संचालित मान लिया गया है। इस प्रकार पुराणों में सृष्टि-विषयक विभिन्न मत मिलते हैं जिन पर अपेक्षित चिन्तन आवश्यक है। सष्टि-सम्बन्धी सिद्धान्त पर प्रकाश डालने के क्रम में पर्वत, वन, नदी, वनस्पति, पशु, मानव आदि की उत्पत्ति पर भी विचार करने का प्रयास किया गया है ।
'मत्स्य-पुराण' में सृष्टि सम्बन्धी एक सिद्धान्त में कहा गया है कि सर्वप्रथम नारायण प्रकट हुए • तत्पश्चात् उन्होंने विविध रुप संसार के निर्माण की कामना से भली-भाँति चिन्तन कर सबसे पहले जल
की सृष्टि की और उसमें उने वीर्य का निक्षेप किया। निक्षेपण के पश्चात् वह वीर्य एक स्वर्णमय अण्डे के रुप में परिवर्तित हो गया । स्वयं नारायण उस अण्डे के भीतर प्रविष्ट हो गए और उनके तेज से सूर्य की उत्पत्ति हुई । पुनः उस अण्डे के दो भाग हुए जिससे स्वर्ग एवं पृथ्वी का निर्माण हुआ तथा स्वर्ग एवं पृथ्वी के बीच में अनन्त आकाश एवं सभी दिशाएँ निर्मित हुई । इसके बाद मेरु एवं अन्य पर्वतों तथा सप्त समुद्रों (लवण, इक्षु आदि) का निर्माण हुआ । नारायण प्रजापति बन गए उन्होंने देव, असुरों सहित यह विश्व बनाया ।
___ "विष्णु-पुराण" के अनुसार सृष्टि का प्रारम्भ प्रकृति और पुरुष के संयोग से होता है। यहाँ कहा गया है कि प्रकृति और पुरुष विष्णु के दो रुप हैं । ये सृष्टि आरम्भ होने के समय पृथक् हो जाते हैं,
और प्रलय काल में एक अव्यक्त रुप में लीन हो जाते हैं। प्रलय काल में सत्त्व, रजत्, तमस् की निष्क्रिय अवस्था होकर गुण-साम्य हो जाता है । और पुरुष प्रकृति से पृथक् अवस्था में रहने लगता है । सृष्टिकाल के आ जाने पर ब्रह्मा (परमात्मा) स्वयं ही इच्छानुसार पुरुष और प्रकृति में प्रविष्ट होकर उन्हें सृष्टिकार्य के लिए क्षोभित एवं प्रेरित करते हैं, फलस्वरुप महत्तत्त्व का निर्माण होता है जो प्रकृति या प्रधान के तीन गुणों से युक्त रहता है । महत्तत्त्व से अहंकार, अहंकार से भूत, इन्द्रिय की उत्पत्ति होती है। तत्पश्चात् आकाश, तेज, वायु आदि महाभूत बनते हैं, जिनसे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की रचना होती है।'
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