SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 100
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महावीर राज गेलड़ा ACT नेटवर्क अत्यंत रहस्यमय उन लोगों के लिए है जो इन्द्रियगत ज्ञान से ही जगत को देखते - जानते है । आज विज्ञान, गणित के माध्यम से सूक्ष्मतम और वृध्यतम, दोनों को जानने के प्रयास में लगी है। अतीत की प्रत्येक घटना, सूक्ष्म तन्त्र में परिवर्तित हो कर आकाश में लम्बे समय तक रह सकती है । इसलिए यह प्रयास जारी है कि हम अतीत को जान सके। इस आकाश में इतने सूक्ष्म सिस्टम्स हर जगह उपलब्ध है कि हमारे किसी सोच के लिए जैसे ही पदार्थ चाहिए, तुरन्त मिल जाता है । हम ऐसा कुछ सोच भी नहीं सकते जिसका तन्त्र उपलब्ध न हो। इस कारण प्रत्येक जीव को कर्म-वर्गणाऐं किसी भी स्थान पर उपलब्ध हो जाती है। यह कहा जा सकता है कि ऐसी कोई नई घटना संभव नहीं, जो अतीत में कभी न हुई हो । जैन साहित्य में पुनर्जन्म, जाति स्मरण ज्ञान आदि का वर्णन है जो अतीत में ले जाता है - पूर्व भव को दिखा देता है। ऐसा लगता है सूक्ष्म के व्यवहार के संबंध में जैन साहित्य में सर्वाधिक सूचनाऐं उपलब्ध है. जो आधुनिक विज्ञान के परिणामों से सुसंगत प्रतीत होती है । यह जैन दर्शन की विलक्षण देन है | कर्म सिद्धान्त पर अत्यधिक साहित्य लिखा गया है। एक श्रुत घटना के अनुसार, दक्षिण के किसी विद्वान ने जर्मन विद्वान डॉ. आलसडोर्प, को सूचित किया कि जैन आगम का बाहरवा आगम दृष्टिवाद उपलब्ध हो गया है। अगर यह सही होता तो जैन विद्या के उपकार का बहुत बडा चेंनल खुल जाता । आल्सडोर्क को भी सुखद आश्चर्य हुआ और उन्होंने कुछ पृष्ठ मंगवाए । उनको अध्ययन करने के बाद उन्होंने सूचित किया कि यह तो किसी कर्म-ग्रंथ के पृष्ठ हैं। भूल यह हुई थी कि इस कर्मग्रंथ के इतने अधिक वोलूयमस थे कि भारतीय विद्वान ने यही सोचा कि इतना विशाल साहित्य केवल दृष्टिवाद काही हो सकता है । इससे ज्ञात होता है कि कर्म-मीमांसा पर बहुत लिखा गया है फिर भी इसके भौतिक पक्ष पर कम ही लिखा गया हैं । आज विज्ञान के सहारे सूक्ष्म पदार्थ को समम्का जा सकता है तथा कर्मके व्यवहार को भी विस्तार से जाना जा सकता है। दोनों मे परस्पर पूरकता है। कर्म की चार प्रकृतिऐं हैं, उनमें प्रकृति बंध, स्थिति बंध, अनुभाग बंध इन तीनो से समझने के लिए इसकी चौथी प्रकृति प्रदेश बंध के भौतिक पक्ष को सही परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करने का यहाँ प्रयत्न किया गया है किन्तु बहुत कुछ जीतना शेष है । 94 Jain Education International ✰✰✰ For Personal & Private Use Only SAMBODHI www.jainelibrary.org
SR No.520776
Book TitleSambodhi 2003 Vol 26
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah, N M Kansara
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2003
Total Pages184
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy