SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 158
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Vol. XXV, 2002 जैन दर्शन में निर्जरा तत्त्व भगवती सूत्र में व्युत्सर्ग के चार प्रकार स्वीकार किये गये हैं, जो निम्नवत् है ३. उपधि व्युत्सर्ग १. गण व्युत्सर्ग २. शरीर व्युत्सर्ग ४. भक्तपान व्युत्सर्ग। ७९ शरीर व्युत्सर्ग को कायोत्सर्ग भी कहते हैं। इसके अन्तर्गत साधक मोहवश किये गये कार्यों का प्रायश्चित्त करता है, मन में पश्चात्ताप करता है और शरीर की ममता को त्याग कर उन दोषों को दूर करने लिए कृत संकल्प करता है । कायोत्सर्ग की साधना करते समय देवता, मनुष्य तथा तिर्यंच सम्बन्धी उपसर्ग भी हो सकते हैं, साधक उन उपसर्गों को सम्यक् प्रकार से सहन करे, तभी उसका कायोत्सर्ग शुद्ध हो सकता है । ८० कायोत्सर्ग जीवन की प्रतिदिन की साधना है । प्रत्येक क्षण में कायोत्सर्ग की भावना करनी चाहिए । भगवान ने कहा - " अभिक्खणं काउस्सग्गकारी " अभीक्ष्ण बार-बार कायोत्सर्ग करता रहे। प्रकारान्तर से इसके दो भेद हैं - १. द्रव्य कायोत्सर्ग, २. भावकायोत्सर्ग । ८१ द्रव्य में कायचेष्टा का विरोध होता है और भाव में धर्म एवं शुक्ल ध्यान में रमण रहता है । कायोत्सर्ग में तप प्रमुख है । कायोत्सर्ग में जो साधक सिद्ध हो जाता है, वह सम्पूर्ण व्युत्सर्ग तप में • सिद्ध हो जाता है । ८२ पादटीप (क) “एकदेश कर्म संक्षय लक्षणा निर्जरा ।" सर्वार्थसिद्धि, 1/4. (ख) तत्त्वार्थवार्तिक अकलंक, 1/4/17. २ "वद्धपदेसग्गलणं णिज्जरणं इदि जिणेहि पण्णत्तं ।” द्वादशानुप्रेक्षा, 66. ३ " कर्मणां विपाकतस्तपसा व शाटो निर्जरा ।” ४. “ बन्धहेत्वभावनिर्जरायाम्" तत्त्वार्थ सूत्र, 10/2. तथा “कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्षः " वही, 10/3. ५.. " संवरजोगेहिं जुदो तवेहिं जो घिट्ठदे व दुविहेहि । कम्माणं णिज्जरणं बहुमाणं कुणदि सो णियद । " ६. पंचास्तिकाय, पृ० 209. Jain Education International - 153 तत्त्वार्थभाष्य हरिभद्रीय वृत्ति 1/4. - पंचास्तिकाय, गाथा 144 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520775
Book TitleSambodhi 2002 Vol 25
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah, N M Kansara
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy