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Vol. XXV, 2002
३. चारित्र्य विनय विनय" कहलाता है ।
४. उपचार विनय
रखना 'उपचार विनय" कहलाता है ।
जैन दर्शन में निर्जरा तत्त्व
सम्यक् पूर्वक किसी भी चरित्र में चित् का समाधान करना " चारित्र्य
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- प्रत्येक जीव अपनी अपेक्षा सद्गुणी मनुष्य में समादर भाव अर्थात् समान भाव
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वैयावृत्त्य
धर्म साधना में सहयोग करनेवाली आहार आदि वस्तुओं से शुश्रूषा करना वैयावृत्त्य कहलाता है। वैयावृत्त्य से तीर्थंकर नाम गोत्र कर्म का उपार्जन होता है । ५३ रोगी, नवदीक्षित, आचार्य आदि की सेवा करता हुआ साधक महानिर्जरा और महापर्यवसान परममुक्ति पद को प्राप्त करता है । ५४ सेवा मुक्तिदायिनी है ।
स्थानांग में जो आठ शिक्षाएँ दी गयी हैं उनमें से दो शिक्षाएँ केवल सेवा के सम्बन्ध में हैं। 44 भगवती आदि में वैयावृत्त्य के दस प्रकार बताये हैं । ५६ इन्हीं दस प्रकार का वर्णन निम्नवत् प्रस्तुत है
१. आचार्य
६. गण
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७. कुल
८. संघ
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२. उपाध्याय
३. तपस्वी
४. शैक्ष
९. साधु
५. ग्लान
१०. समनोज्ञ
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- मुख्य रूप से जिसका कार्य व्रत और आचार ग्रहण कराने का हो, वह "आचार्य” है।
७. कुल - एक ही आचार्य द्वारा दीक्षित शिष्य- समुदाय को " कुल" कहा जाता है
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८. संघ
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१. आचार्य
२. उपाध्याय
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- मुख्य रूप से जिस व्यक्ति का कार्य श्रुताभ्यास कराने का हो, वह " उपाध्याय" है ।
३. तपस्वी
- जो महान और उग्र तप करनेवाला हो, उसे "तपस्वी" कहते हैं ।
४. शैक्ष – जो नवदीक्षित होकर शिक्षण प्राप्त करने का प्रत्याशी हो, उसे “शैक्ष" कहते हैं ।
५. ग्लान - - जो गुण आदि से क्षीण हो अर्थात् जिसमें गुण की माला कम है, वह "ग्लान" कहा जाता है।
६. गण - - पृथक्-पृथक् आचार्यों के सांनिध्य में रहकर शिक्षा ग्रहण करनेवाले समुदाय को 'गण' कहते हैं।
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• धर्म का अनुशरण करनेवाले समुदाय का नाम संघ है। इसके साधु, साध्वी, श्रावक तथा श्राविकाएँ ये चार भेद हैं ।
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