SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 142
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Vol. XXV, 2002 संस्कृत साहित्य में मानवीय तत्त्व के रूप में अनुक्रोशत्व 137 ___ अब ‘मृच्छकटिक' में शूद्रक ने जिस व्यापक सन्दर्भ में ‘अनुक्रोश' शब्द का प्रयोग किया है, वह अतीव ध्यानास्पद है : माथुरादि द्यूतकरों से भागकर संवाहक वसन्तसेना के घर में घुस आया है। वह अपना पूर्ववृत्तान्त सुनाते हुए कहता है कि उसने उज्जयिनी में एक बार चारुदत्त के घर दास्यवृत्ति की थी। उस चारुदत्त का परिचय देता हुआ वह कहता है कि संवाहक : आर्ये, स इदानीम् अनुक्रोशकृतैः प्रदानैः...। वसन्तसेना : किम् उपरतविभवो संवृत्तः ? संवाहक : अनाख्यातमेव कथमार्यया विज्ञातम् ?' संवाहक बताता है :-“वह चारुदत्त आजकल अनुक्रोश के कारण किये हुओ अनेक दानों से..." वसन्तसेना इस वाक्य की पूर्ति करती है कि-"क्या उसका वैभव नष्ट हो गया है ?" संवाहक साश्चर्य प्रश्न करता है कि-"आपने बिना बताये कैसे जान लिया ?" इस संवाद से ज्ञात होता है कि अपने आसपास के स्नेही-सम्बन्धी एवं सभी नगरजनों को अनेक प्रकार के कष्टों से छुड़ाने के लिए चारुदत्त के चित्त में प्रगाढ़ अनुक्रोश है। इससे प्रेरित होकर चारुदत्त ने अनेक दान दिये है; और परिणाम स्वरूप वह स्वयं दरिद्र हो गया है। चारुदत्त की संवेदना में जो परदुःखदुःखिता है - अनुक्रोश है - वही उसकी सर्वोच्च मानवीयता है। यहाँ पर यह बात सुस्पष्ट हो जाती है कि संस्कृत कविओं ने पति-पत्नी के सम्बन्धों से अतिरिक्त सम्बन्धों में भी अनुक्रोश' शब्द का प्रयोग किया है ॥ (४) 'अनुक्रोश' शब्द का प्रयोग 'कुन्दमाला' नाटक में भी दिखाई पड़ता है। राम वाल्मीकि के आश्रम में जा कर, कुश से भेंट होने पर, उनसे पूछते है कि आप दोनों के पिता का क्या नाम है ? कुश बताता है : हमारे पिता का नाम 'निरनुक्रोश' है ! विदूषक पूछता है कि ऐसा कौन कहता है ? तब कुश उत्तर देता है : “हमारी माता (सीता) जब हमारे कोई बालभावजनित अविनय-चापल–को देखती है तो - अरे निरनुक्रोश पिता के पुत्रों ! आप चापल न करो" - ऐसी सूचना देती है । यह सुनकर विदूषक निष्कर्ष निकालता है कि यदि इन दोनों पुत्रों का पिता कोई निरनुक्रोश नामक व्यक्ति है तो निश्चित रूप से उनकी माता अपमानित की गई होगी एवं निर्वासित भी की गई होगी। अब ऐसी माता इन दोनों के पिता को प्रत्यक्ष रूप से कुछ आक्षेप देने में असमर्थ होने के कारण 'निरनुक्रोश (पिता) के पुत्र' कह कर बालकों की भर्त्सना करती होगी ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.520775
Book TitleSambodhi 2002 Vol 25
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah, N M Kansara
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy