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Vol. XXIII, 2000 काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों में 'सेतुबन्ध' के कतिपय उद्धरण...
91 जो भी हो, अनुप्रासालंकार से यह पद्य सुशोभित व मनोरम हो गया है। पडिआ अ. इत्यादि (सेतु ११/५४, द्रष्टव्य इस आलेख का पृ. ६३)
भोज ने प्रस्तुत पद्य कारक परिकर के लिए उद्धृत किया है। पडिआ अ हत्थ. इत्यादि विशेषणों से 'जनकसुता' यह कारक पद को परिकरित किया है, अतः यहाँ कारकपरिकरालंकार निर्मित हुआ है । यहाँ पर करुणविप्रलंभ भी व्यञ्जित हो रहा है, यह पहिले उल्लिखित किया गया है।
पत्ताअ सीमराहअधाउशिलाअल णिसण्णराइअजलअम् । सज्जं ओज्जुरपहसिदइरिमुहणिम्महिअबउलमइरामोदम् ॥
सेतु. १/५६ - (स.कं. पृ. २४०) प्राप्ताश्च शीकराहतधातुशिलाजलनिषण्णराजितजलजम् ।
सह्यं निर्झरप्रहसितदरीमुखनिर्मथितबकुलमदिरामोदम् ॥ भोज ने वृत्तियों के सन्दर्भ में 'ओजस्विनी' वृत्ति के उद्धरणरूप यह पद्य प्रस्तुत किया है, जिसमें मूर्धन्य अक्षरों की आवृत्ति होती है।
(भारतीय विद्या. ओज्झ, मुहणिकन्त और आमोअम् पाठान्तर है, औ. बसाक णिवडन्त) रामदास भूपति इसमें विकटोदरत्व मानतें हैं । (पृ. ३१) इति विकटोदरत्वमुक्तम् ।
सेतुतत्त्वचन्द्रिका यहाँ पर 'समाधि' अलंकार मानती है । - एतेन मदरञ्जितस्य प्रहसन्मुखस्य निर्गतमदिरामोदस्य पुंसः साम्यं पर्वते समाहितमिति समाधिरलङ्कारः ॥ - (डॉ. बसाक, पृ. २६)
परिवड्डइ विन्नाणं संभाविज्जइ जसो विढप्पति गुणा । सुव्वइ सुउरिसचरिअं किं तं जेण न हरन्ति कहालावा ॥ (सेतु. १/१०) परिवर्धते विज्ञानं संभाव्यते यशोऽय॑न्ते गुणाः ।
श्रूयते सुपुरुषचरितं किं तद्येन न हरन्ति काव्यालापाः ॥ काव्य से विज्ञान का संवर्धन होता है, यश की वृद्धि, गुणों की प्राप्ति, सत्पुरुषों का चरित सूनने को मिलता है।
प्रस्तुत पद्य हेमचन्द्र, और विद्यानाथने उद्धरित किया है। पहिले हम सेतुबन्ध के टीकाकारों का विवरण देखें - रामदास भूपति टीका में निम्न कथित स्पष्टीकरण देतें हैं -