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पारुल मांकड
SAMBODHI सा.मी.कार भी इसे सहोक्ति के उद्धरण के रूप में पेश करतें हैं, लेकिन यहाँ पर भोज और नरेन्द्रप्रभ जितनी स्पष्टता नहीं दिखाई पडती । (पृ. १२०)
धुअमेहमहुअराओ घणसमआअडिओणअविमुक्काओ । णहपाअवसाहाओ णिअअट्ठाणं व पडिगआओ दिसाओ ॥
सेतु. १/१९. (स.कं. पृ. ४२८) धृतमेघमधुकरा घनसमयाकृष्टावनतविमुक्ताः ।
नभः पादपशाखा निजकस्थानमिव प्रतिगता दिशः ॥ ___ भोज ने प्रस्तुत पद्य में उत्प्रेक्षा से संकीर्ण सावयव- निरवयवरूप उभयरूपक माना है। आकाश पर वृक्ष का, दिशा पर शाखाओं का और मेघ पर मधुकर का आरोप है । यहाँ उत्प्रेक्षा भी है। ('निजस्थानमिव' में)
अत्र पादपरूपेणरूपितस्य नभसो यदेतद्दिशां शाखारूपेण रूपणं मेघानां च मधुकरकरेण तदुभयमप्यन्यपदार्थषष्ठीसमासयोरभिधीयमानेन सावयवं निरवयवं चेत्युत्प्रेक्षया च संकीर्णमाणमुभयसंकीर्णरूपकव्यपदेशं लभते । सोऽयं संकीर्णरूपकेषूभयभूयिष्ठरूपकभेदः । (स.कं. पृ. ४२१)
रामदास भूपति भी इस पद्य में रूपक ही स्वीकार करतें हैं। उत्प्रेक्षा का संकर भी मानते हैं ।
दिशो निजकस्थानमिव प्रतिगता व्याघुट्य पूर्वस्थानं गता इवेत्युत्प्रेक्षा । किं भूताः । नभ एव पादपस्तस्य शाखा इति रूपकम् । - (पृ. १३)
'सेतुतत्त्वचन्द्रिका' सिर्फ उत्प्रेक्षा ही मानती है। (पृ. ११) कृष्णविप्र भी उत्प्रेक्षा ही स्वीकार करते हैं। - शरदि मेघापायात् प्रकाशा दिशः कविनैवमुत्प्रेक्षिताः ।
(प्रा. हेन्दीक्वी. पृ. १४२) धूमाइ धूमकलुसे जलइ जलन्ता बुहत्थजीआबन्धे । पडिरअपडिडण्णदिसे रसइ रसन्तिसिहरे घणुम्मि णहअलम् ॥ (स.कं. पृ. २५३) धूमायते धूमकलुषे ज्वलति ज्वलदात्तहस्तजीवाबन्धे।
प्रतिरवप्रतिपूर्णदिशि रसति रसच्छिखरे धनुषि नभस्तलम् ॥ भोज के मतानुसार यहाँ 'धूम' इत्यादि का पुनर्वचन होने से यह अनुप्रास पुनरुक्तिमान् कहा जाता है। ____टीकाकार के मुताबिक वाच्य के अभेद से पुनरुक्ति होती है। आवृत्तिलक्षणवाले अनुप्रास में वह होती है। तात्पर्य के भेद से दोष नहीं है।