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________________ 90 पारुल मांकड SAMBODHI सा.मी.कार भी इसे सहोक्ति के उद्धरण के रूप में पेश करतें हैं, लेकिन यहाँ पर भोज और नरेन्द्रप्रभ जितनी स्पष्टता नहीं दिखाई पडती । (पृ. १२०) धुअमेहमहुअराओ घणसमआअडिओणअविमुक्काओ । णहपाअवसाहाओ णिअअट्ठाणं व पडिगआओ दिसाओ ॥ सेतु. १/१९. (स.कं. पृ. ४२८) धृतमेघमधुकरा घनसमयाकृष्टावनतविमुक्ताः । नभः पादपशाखा निजकस्थानमिव प्रतिगता दिशः ॥ ___ भोज ने प्रस्तुत पद्य में उत्प्रेक्षा से संकीर्ण सावयव- निरवयवरूप उभयरूपक माना है। आकाश पर वृक्ष का, दिशा पर शाखाओं का और मेघ पर मधुकर का आरोप है । यहाँ उत्प्रेक्षा भी है। ('निजस्थानमिव' में) अत्र पादपरूपेणरूपितस्य नभसो यदेतद्दिशां शाखारूपेण रूपणं मेघानां च मधुकरकरेण तदुभयमप्यन्यपदार्थषष्ठीसमासयोरभिधीयमानेन सावयवं निरवयवं चेत्युत्प्रेक्षया च संकीर्णमाणमुभयसंकीर्णरूपकव्यपदेशं लभते । सोऽयं संकीर्णरूपकेषूभयभूयिष्ठरूपकभेदः । (स.कं. पृ. ४२१) रामदास भूपति भी इस पद्य में रूपक ही स्वीकार करतें हैं। उत्प्रेक्षा का संकर भी मानते हैं । दिशो निजकस्थानमिव प्रतिगता व्याघुट्य पूर्वस्थानं गता इवेत्युत्प्रेक्षा । किं भूताः । नभ एव पादपस्तस्य शाखा इति रूपकम् । - (पृ. १३) 'सेतुतत्त्वचन्द्रिका' सिर्फ उत्प्रेक्षा ही मानती है। (पृ. ११) कृष्णविप्र भी उत्प्रेक्षा ही स्वीकार करते हैं। - शरदि मेघापायात् प्रकाशा दिशः कविनैवमुत्प्रेक्षिताः । (प्रा. हेन्दीक्वी. पृ. १४२) धूमाइ धूमकलुसे जलइ जलन्ता बुहत्थजीआबन्धे । पडिरअपडिडण्णदिसे रसइ रसन्तिसिहरे घणुम्मि णहअलम् ॥ (स.कं. पृ. २५३) धूमायते धूमकलुषे ज्वलति ज्वलदात्तहस्तजीवाबन्धे। प्रतिरवप्रतिपूर्णदिशि रसति रसच्छिखरे धनुषि नभस्तलम् ॥ भोज के मतानुसार यहाँ 'धूम' इत्यादि का पुनर्वचन होने से यह अनुप्रास पुनरुक्तिमान् कहा जाता है। ____टीकाकार के मुताबिक वाच्य के अभेद से पुनरुक्ति होती है। आवृत्तिलक्षणवाले अनुप्रास में वह होती है। तात्पर्य के भेद से दोष नहीं है।
SR No.520773
Book TitleSambodhi 2000 Vol 23
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah, N M Kansara
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2000
Total Pages157
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size11 MB
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