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________________ lol. XXIII, 2000 काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों में 'सेतुबन्ध' के कतिपय उद्धरण... 95 भारतीय विद्या. विसरिअविओअदुक्खं. पाठ है, डॉ. बसाक में स.कं. के समान है। भोजदेव द्रव्यजातिनिमित्तसाम्या सामान्यतः पूर्वा नामक दृष्टान्तोक्ति का उदाहरण सेतु. से ग्रहण करते है। यह साम्यालंकार का भेद है। विसवेओ व्व पसरिओ जं जं अहिलेइवहलधूमुप्पीडो । सामलइज्जइ तं तं रुहिरं व महोअहिस्स विद्युमवेण्टम् (ढम्) । विषवेगे इव प्रसृतो यं यमलिलेढि (लीयते) बहलधूमोत्पीडः। श्यामलयति (लायते) तं तं (तत्तद्) रुधिमिव महोदधेर्विद्रुमवेष्टम् (पीठम्) । __ (सेतु. ५/५०) - (स.कं. पृ. ४३३) मम्मट - रुय्यकादि आलंकारिकोंकी दृष्टि से इसमें उत्प्रेक्षालंकार है । रामदास भूपतिने इसमें श्यामीकरत्वरूप 'ध्वनि' माना है। अन्यत्रापि सर्पादिविषं वपुषि प्रविशद्रुधिरं व्याप्य श्यामीकरोतीति ध्वनिः । - (पृ. १२८) डॉ. बसाक में ५२ क्रमांक है। यहाँ पर कज्जलयति तथा पीलो पाठान्तर है। (पृ. १३५). वेवइ जस्स सविडिअं वलिउं महर पुलआइ अत्थणअलसं । पेम्म सहावबिमुहिअं वीओवासगमणूसुअं वामद्धम् ॥ वेपते यस्य सव्रीडं वलितुं वाञ्छति पुलकाञ्चितस्तनकलशम् । प्रेमस्वभावविमुक्तं द्वितीयपार्श्वगमनोत्सुकं वामार्धम् ॥ (सेतु. १/६) । भोज ने प्रस्तुत पद्य मञ्जिष्ठ राग के उदाहरण में दिया है। (पृ. ७०१) विमलिअरसाअलेण विविसहरपइणा अदिट्ठमूलच्चेअं । . अप्पत्तत्तुङ्गसिहरं तिभुवणहरणपरिवड्डिएणवि हरिणा ॥ (सेतु. ९/७, स.कं. पृ. ५४२) विमर्दितरसातलेनापि विषधरपतिनादृष्ट मूलच्छे दम् । अप्राप्ततुशशिखरं त्रिभुवनहरणे प्रवर्धितेनापि हरिणा ॥ भोज और सा.मी.कार प्रस्तुत उद्धरण देते हैं। भोज ने अनुभवातिशय के लिए प्रस्तुत पद्य का जिक्र किया है। कथित पद्य में दक्षिण दिशा की आच्छादित कर रहे 'सुवेल' पर्वत का निरूपण है। जिसका शिखर पाताल तक फैले हुए शेषनाग भी छू न सका और त्रिविक्रम भी छू न सके । अतः यहाँ लोकसीमातिवर्तिनी
SR No.520773
Book TitleSambodhi 2000 Vol 23
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah, N M Kansara
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2000
Total Pages157
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size11 MB
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