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________________ 104 रत्नलाल जैन SAMBODHI वंश-परम्परा और वातावरण Heredity and Environment मनोविज्ञान में वैयक्तिक भिन्नता का अध्ययन वंशपरम्परा और वातावरण के आधार पर किया जाता है। जीवन का आरम्भ माता के डिम्ब और पिता के शुक्राणु से होता है । क्रोमोसोम (Chromosomes) जीनों का समुच्चय व्यक्ति के आनुवंशिक गुणों का निश्चय क्रोमोसोम द्वारा होता है। क्रोमोसोम अनेक जीनों (जीन्स) का समुच्चय होता है। ये जीन ही माता-पिता के आनुवंशिक गुणों के वाहक होते हैं। एक क्रोमोसोम में लगभग हजार जीन माने जाते हैं । शारीरिक मानसिक क्षमताएँ (Potentialities) इन जीन्स में ही शारीरिक और मानसिक विकास की क्षमताएँ निहित होती हैं । व्यक्ति में कोई ऐसी विलक्षणता प्रकट नहीं होती जिस की क्षमता उनके जीन में निहित न हो । मनोविज्ञान ने शारीरिक और मानसिक विलक्षणताओं की व्याख्या वंशपरम्परा और वातावरण के आधार पर की है । मनोविज्ञान और कर्मशास्त्र-वैषम्य शारीरिक विलक्षणता पर आनुवंशिकता का प्रभाव प्रत्यक्ष ज्ञात होता है, पर मानसिक विलक्षणताओं के सम्बन्ध में आज भी अनेक प्रश्न अनुत्तरित हैं। क्या बुद्धि आनुवंशिक है ? अथवा वातावरण का परिणाम है ? क्या बौद्धिक स्तर का विकास किया जा सकता है ? इन प्रश्रों का उत्तर प्रायोगिकता के आधार पर नहीं दिया जा सकता । वंशपरंपरा और वातावरण से सम्बद्ध प्रयोगात्मक अध्ययन केवल निम्रकोटि के जीवों पर ही किया गया है । बौद्धिक विलक्षणता का सम्बन्ध मनुष्य से है। इस विषय में मनुष्य अभी भी एक पहेली बना हुआ है । जीवन और जीव - मनोविज्ञान और कर्म मनोविज्ञान के क्षेत्र में जीवन और जीव का भेद अभी तक स्पष्ट नहीं है। कर्मसिद्धान्त के अध्ययन में जीव और जीवन का भेद बहुत ही स्पष्ट है । आनुवंशिकता का सम्बन्ध जीवन से है, वैसे ही कर्म का सम्बन्ध जीव से है । उसमें अनेक जन्मों के कर्म या प्रतिक्रियाएँ संचित होती है। इसलिए वैयक्तिक योग्यता या विलक्षणता का आधार केवल जीवन के आदि-बिन्दु में ही नहीं खोजा जा सकता । उससे पर भी खोजा जाता है । जीव के साथ प्रवहमान कर्मसंचय (कर्मशरीर) में भी खोजा जाता है। शारीरिक मनोविज्ञान का मत - जीन में साठ लाख आदेश - आज के शरीरविज्ञान की मान्यता है कि शरीर का महत्त्वपूर्ण घटक है - जीन । यह संस्कारसूत्र है, यह अत्यन्त सूक्ष्म है । प्रत्येक जीन में साठ-साठ लाख आदेश लिखे हुए होते हैं । इस सूक्ष्मता की तो मात्र कल्पना ही की जा सकती है। मनुष्य की शक्ति, चेतना, पुरुषार्थ कर्तृत्व कितना है ? एकएक जीन में साठ-साठ लाख आदेश लिखे हुए हैं। प्रश्न होता है कि हमारा पुरुषार्थ, हमारा कर्तृत्व, हमारी चेतना कहाँ है । क्या यह 'क्रोमोसोम' और जीन में नहीं है ? इस लिए तो इतनी तरतमता एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में । सबका पुरुषार्थ समान नहीं होता । सब की चेतना समान नहीं होती। इस असमानता का कारण-प्राचीन भाषा में कर्मशास्त्र
SR No.520770
Book TitleSambodhi 1996 Vol 20
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah, N M Kansara
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1996
Total Pages220
LanguageEnglish, Sanskrit, Prakrit, Gujarati
ClassificationMagazine, India_Sambodhi, & India
File Size7 MB
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